24 नव॰ 2016
आज्ञाचक्र ध्यान अथवा अंतर त्राटक अथवा ध्यान साधना प्रयोग
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On: नवंबर 24, 2016
जिसे हम ध्यान कहते है वो आज्ञा चक्र ध्यान ही है मगर इसको सीधे ही करना लगभग असम्भव है उसके लिये साधक को पहले त्राटक करना चाहिये और एकाग्रता हासिल होने पर ध्यान का अभ्यास आरम्भ करना चाहिये। इस त्राटक में हमकों अपनी आंख के अंदर दिखने वाले अंधेरे में नजर जमानी होती है मगर नये साधक के लिये सीधे ही आज्ञाचक में नजर जमाना मुश्किल होता है इसलिये इसके अभ्यास के पहले त्राटक का अभ्यास कर लीजिये। अन्यथा इसमें सफलता मिलने की उम्मीद कम ही होती है। त्राटक से जब आपके विचार शान्त होने लगते है नजर एक ही स्थान पर जमने लगती है तो इसमें सफलता शीघ्रता से मिल जाती है।
* सर्व प्रथम साधक प्रतिदिन एक निश्चित समय पर अपने पूजा स्थान या अपने सोने के कमरे अथवा किसी निर्जन स्थान में सिध्दासन या सुखासन में बैठ कर ध्यान लगाने का प्रयास करे, ध्यान लगाते समय अपने सबसे पहले अपने आज्ञा चक्र पर ध्यान केद्रित करे तथा शरीर को अपने वश मे रखने का प्रयास करें बिल्कुल शांत निश्चल और स्थीर रहें, शरीर को हिलाना डूलना खुजलाना इत्यादि न करें। तथा नियम पुर्वक ध्यान लगाने का प्रयास करें। साधना के पहले नहाना आवश्यक नही है प्रयास करे कि उठने पर जितनी जल्दी साधना आरम्भ कर दे उतना ही लाभ दायक रहता है क्योंकि सो कर उठने पर हमारा मन शान्त रहता है मगर फिर वो धीरे धीरे चलायमान हो जाता है जागने के जितना देर बाद आप ध्यान में बैठेंगे उतना ही देर में वो एकाग्र हो पायेगा। ये नियम सभी त्राटक या साधनाओं पर लागू होता है
* साधक जब ध्यान लगाने की चेष्टा करता है तब मन अत्यधिक चंचल हो जाता है तथा मन में अनेकों प्रकार के ख्याल उभरने लगते हैं। साधक विचार को जितना ही एकाग्र करना चाहता है उतनी ही तिव्रता से मन विचलित होने लगता है तथा मन में दबे हुए अनेकों विचार उभर कर सामने आने लगते हैं। त्राटक के बिना सीधे ही ध्यान लगाना मुश्किल है इसलिये त्राटक से शुरूआत करके आज्ञा चक्र ध्यान पर आइये। बस आंखों को बंद कर लीजिये व आंख के अंदर दिखने वाले अंधेरे को देखते रहिये। जो कुछ दिखे देखते रहिये कोई विश्लेशण मत कीजिये। कुछ समय बाद आपको अपनी आंखों के अदर प्रकाश के गोले से दिखना शुरू हो जायेंगे हल्के प्रकाश के छोटे गोले आयेंगे वो एक जगह एकत्र होते हुये तेज प्रकाश में बदलते जायेंगे आपस में मिलते जायेंगे। कुछ दिन बाद आपको उनमें कुछ सीन दिखाई देना शुरू हो जायेंगे। एकदम फिल्म की तरह। बस उसको देखते रहिये। शुरूआत में ये सीन हमारे मनचाहे नही होते। कुछ भी दिख सकता है अनदेखा दिख सकता है कल्पना नही है वो सब विश्व में कही ना कही मौजूद है। फिर अभ्यास बढ जाने पर एकाग्रता बढ जाने पर हम मनचाहे सीन देख सकते है वो अपना या किसी का भूत भविष्य वर्तमान सबकुछ हो सकता है जो आप सोच सकते है वो हो सकता है हजारों लाखों साल पुराना देख सकते है या भविष्य मे घटने वाली घटनायें भी देख सकते है।
आज्ञाचक्र ध्यान वाली विधि आप अंधेरे में आखे खोल कर देखते हुये भी कर सकते है। उसके लिये कमरे में एकदम अंधेरा होना चाहिये। बस अंधेरे में ध्यान से देखते रहिये। इसका वही प्रभाव है जो आज्ञाचक्र घ्यान या तीसरे नेत्र पर ध्यान का है।
त्राटक के नियम व सावधानियॉ
पलकों पर ध्यान ना दीजिये पलकों को जबरदस्ती खुला रखने का प्रयत्न ना कीजिये। पलक झपकी है झपकने दीजिये। जबरदस्ती आंखे खोले रखने पर आंखों की नमी सूख जाती है वा अंधापन आ जाता है। मगर नेट पर व किताबों में वर्णन आता है कि आप आधा एक घण्टा आंखे खुली ही रखों जबकि नये अभ्यासी के लिये ये असम्भव है। आंखें और ज्यादा देर तक खुली रहने का समय अपने आप ही आपके अभ्यास के अनुसार दिन बीतने पर बढता जाता है। आप टी वी देखते पर या कोई चीज देखते पर जिस प्रकार पलकों पर ध्यान नही देते उसी प्रकार से त्राटक कीजिये। आंखों पर ध्यान ही ना दीजिये। यदि कोई व्यक्ति वेट लिफटर बनने का प्रयास कर रहा है तेा पहले दिन वो बीस तीस किलो वजन ही उठा पायेगा फिर धीरे धीरे अभ्यास बढने पर वो समय के साथ चालीस किलो पचास किलो सौ किलो दो सौ किलो वजन उठाने लगेगा। मगर यदि उसको बताया जाये कि तुम एकदम से दो सौ किलो वजन उठा लो तो वो उसको हिला भी नही सकता या उसके उपर जबरदस्ती उतना वजन लाद दिया जाये तो गिर कर या उस वजन से दब कर उसकी हडडी पसली टूटेगी या उसकी मौत होगी। इसी प्रकार से योग या ध्यान की कोई क्र्रिया है। आप अपने आप शरीर से कोई जबरदस्ती नही कर सकते1। यदि करेंगे तो अपना नुकसान ही होगा। आपको शक्ति मिलेंगी नही बल्कि खर्चा होगी। इस लिये अपनी आंखों को जबरदस्ती खुला रखने का प्रयास ना करे ओर जिस चीज पर त्राटक कर रहे है उसी पर अपनी नजर जमा कर पूरा ध्यान वही रखे।
त्राटक के लिये वस्तु से आंख की दूरी का कोई महतव नही है। आपको जहॉ से अच्छी तरह वस्तु नजर आये वही पर रखिये। इसकी दूरी तीन फिट से दो चार किलोमीटर तक कुछ भी हो सकती है// दूर का मकान टावर पेड चांद तारा आदि कुछ भी। दूरी कोई मायने नही रखती।।
ये कह देने से कि आंखे खुली रखना पलक ना झपकाना। बस आदमी का विश्वास इस विधि से टूट जाता है वो सोचता है कि ये बडा मुश्किल है मै नही कर पाउंगा वो बडे सिद्ध महात्मा होते है जो ये करते है। घण्टा दो घण्टा आंखे खुली रहने वाली स्थिति साधना की आगे की अवस्था में आती है मगर लोग वो बाद की अवस्था शुरूआती साधकों को बता कर भ्रमित करते है। आदमी त्राटक को बेकार समझता है जबकि तीसरा नेत्र वा सहस्रार जागरण की इससे अच्छी विधि नही है। मगर इसकी मुश्किल व्याख्या की वजह से आदमी इसमें छुपे वैज्ञानिक तथ्य को नही समझ पाता व दो चार बार प्रयास के बाद ही इसको बेकार कह कर निराश होकर इसको छोड देता है।
त्राटक या ध्यान की कोई भी क्रिया करने के बाद आधा घण्टा योग निद्रा अवश्य करे।। योग निद्रा हमारे किसी भी अभ्यास को दस गुना तेजी से बढाने में सहायक है।
त्राटक के बाद यदि आपको तुरन्त उठना है तो दस मिनट बाद आंखों को सादे पानी से धो लीजिये
यदि आंखों में किसी प्रकार का कष्ट महसूस हो तो ये क्रिया कुछ दिनों के लिये रोक दे। यदि आंख में इंफेक्शन वाली कोई मौसमी बीमारी है जिसे आंख उठना कहते है तेा उस समय त्राटक ना करें क्योंकि उस दशा में आंखों पर अतिरिक्त दबाव पडता है क्योंकि बीमारी की दशा में आंखों की नसों में सूजन आ जाती है। आपके द्वारा त्राटक का अभ्यास करने पर वो आपको और नुकसान करेगा।
दिन में दो बार अपनी सुविधानुसार किसी निश्चित समय पर 45 मिनट से लेकर 1 घण्टा तक त्राटक करे। शुरू में हर आदमी इतनी देर त्राटक नही कर पायेगा। इस दशा में यदि आप अपनी आंखों की क्षमता के अनुसार दस बीस मिनट में ही आंखों मे तनाव महसूस कर रहे है तो आप दस बीस मिनट ही त्राटक करे। मगर उसके बाद भी आप पूरा एक घण्टा उसी स्थान पर शांति से आंख बंद करके बैठने का अभ्यास करे। इससे आपके मन की आदत होगी शांत होने की। यदि आपने बीस मिनट त्राटक किया तो उसके बाद शांति से बैठ कर अपने आप काे महसूस कीजिये। मन बार बार भागेगा मगर उसको फिर वही खीच लाइये। अपने आप को महसूस कीजिये अपनी सांसों पर ध्यान दीजिये अपनी सांसों को चलता देखिये। एक घण्टा बैठने का तात्पर्य यही है कि हमारी आदत पडनी चाहिये ध्यान के लिये एक ही स्थान पर एक घण्टा बैठने की।
बहुत से लाेग पूछते है कि एक साथ सारे त्राटक कर सकते है या नही।। हॉ कर सकते है मगर एक समय में एक ही त्राटक करे। यदि एक घण्टा त्राटक करते है तो एक ही चीज पर एक घण्टा त्राटक कीजिये। अगली बार जब त्राटक करे तो दूसरी चीज पर कीजिये। सबका प्रभाव एक ही है।
जिन लोगों की नजर कमजोर है वो त्राटक का समय पॉच दस मिनट से शुरू करे व धीरे धीरे समय बढाये। धीरे धीरे नजर ठीक हो जायेगी। धेर्य की आवश्यकता है त्राटक ध्यान या प्राणायाम में किसी प्रकार की जोर जबरदस्ती अपने शरीर के साथ ना करे।। ये जोर जबरदस्ती आपको स्थाई रूप से नुकसान पहुचा सकती है।
आप किसी भी चीज को एकटक देख कर त्राटक कर सकते है। मेज पर रखा कलम कप गिलास आदि कोई भी वस्तु। दूर कोई टेलीफोन टावर मकान खम्भा चॉद तारा आदि। बस नजर चीज पर जमा लो ध्यान से देखते रहो कुछ ना सोचो। सडक चलते हुये भी कर सकते है सडक की हर चीज को ध्यान से देखों कोई विश्लेशण मत करो मन शांत रहने लगेगा। मगर यदि कोई अच्छी अध्यात्मिक सफलता शक्ति या सिद्धि चाहिये तो रोज दो तीन बार सही प्रकार से उपर बताई विधियों से त्राटक करना चाहिये। किसी चीज पर जब हम नजर जमाते है तो उसके आसपास की चीजें दिखना बंद हो जाती है तो समझ लो कि आपका मन शांत हो रहा है और आपको ध्यान में सफलता मिल रही है। ध्यान की सबसे सफल व शीघ्र सफलता दिलाने वाली विधि त्राटक है।
कोई भी त्राटक तेज प्रकाश में ना करे। उसके लिये दिन का प्राक्रतिक प्रकाश या रात में दीपक के प्रकाश का इस्तेमाल करे। तेज चमकती चीजों पर त्राटक ना करे जैसे बिजली का बल्ब हैलोजन टीवी स्क्रीन कम्प्यूटर या मोबाइल स्क्रीन आदि।
23 नव॰ 2016
ध्यान किसका करना है?dhyan kiska karna hai.
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On: नवंबर 23, 2016
वही आदमी प्रेम करता है, जो बस प्रेम करता है और किसका कोई सवाल नहीं है। क्योंकि जो आदमी ‘किसी से’ प्रेम करता है, वह शेष से क्या करेगा? वह शेष के प्रति घृणा से भरा होगा। जो आदमी ‘किसी का ध्यान’ करता है, वह शेष के प्रति क्या करेगा? शेष के प्रति मूर्च्छा से घिरा होगा। हम जिस ध्यान की बात कर रहे हैं, वह किसी का ध्यान नहीं है, ध्यान की एक अवस्था है। अवस्था का मतलब यह है। ध्यान का मतलब, किसी को स्मरण में लाना नहीं है। ध्यान का मतलब, सब जो हमारे स्मरण में हैं, उनको गिरा देना है; और एक स्थिति लानी है कि केवल चेतना मात्र रह जाए, केवल कांशसनेस मात्र रह जाए, केवल अवेयरनेस मात्र रह जाए। यहां हम एक दीया जलाएं और यहां से सारी चीजें हटा दें, तो भी दीया प्रकाश करता रहेगा। वैसे ही अगर हम चित्त से सारे आब्जेक्ट्स हटा दें, चित्त से सारे विचार हटा दें, चित्त से सारी कल्पनाएं हटा दें, तो क्या होगा? जब सारी कल्पनाएं और सारे विचार हट जाएंगे, तो क्या होगा? चेतना अकेली रह जाएगी। चेतना की वह अकेली अवस्था ध्यान है।
ध्यान किसी का नहीं करना होता है। ध्यान एक अवस्था है, जब चेतना अकेली रह जाती है। जब चेतना अकेली रह जाए और चेतना के सामने कोई विषय, कोई आब्जेक्ट न हो, उस अवस्था का नाम ध्यान है। मैं ध्यान का उसी अर्थ में प्रयोग कर रहा हूं।
जो हम प्रयोग करते हैं, वह ठीक अर्थों में ध्यान नहीं, धारणा है। ध्यान तो उपलब्ध होगा। जो हम प्रयोग कर रहे हैं—समझ लें, रात्रि को हमने प्रयोग किया चक्रों पर, सुबह हम प्रयोग करते हैं श्वास पर—यह सब धारणा है, यह ध्यान नहीं है। इस धारणा के माध्यम से एक घड़ी आएगी, श्वास भी विलीन हो जाएगी। इस धारणा के माध्यम से एक घड़ी आएगी कि शरीर भी विलीन हो जाएगा, विचार भी विलीन हो जाएंगे। जब सब विलीन हो जाएगा, तो क्या शेष रहेगा? जो शेष रहेगा, उसका नाम ध्यान है। जब सब विलीन हो जाएंगे, तो जो शेष रह जाएगा, उसका नाम ध्यान है। धारणा किसी की होती है और ध्यान किसी का नहीं होता।
तो धारणा हम कर रहे हैं, चक्रों की कर रहे हैं, श्वास की कर रहे हैं। आप पूछेंगे कि बेहतर न हो कि हम ईश्वर की धारणा करें? बेहतर न हो कि हम किसी मूर्ति की धारणा करें?
वह खतरनाक है। वह खतरनाक इसलिए है कि मूर्ति की धारणा करने से वह अवस्था नहीं आएगी, जिसको मैं ध्यान कह रहा हूं। मूर्ति की धारणा करने से मूर्ति ही आती रहेगी। और जितनी मूर्ति की धारणा घनी होती जाएगी, उतनी मूर्ति ज्यादा आने लगेगी।
रामकृष्ण को ऐसा हुआ था। वे काली के ऊपर ध्यान करते थे, धारणा करते थे। फिर धीरे-धीरे उनको ऐसा हुआ कि काली के उनको साक्षात होने लगे अंतस में। आंख बंद करके वह मूर्ति सजीव हो जाती। वे बड़े रसमुग्ध हो गए, बड़े आनंद में रहने लगे। फिर वहां एक संन्यासी का आना हुआ। और उस संन्यासी ने कहा कि ‘तुम यह जो कर रहे हो, यह केवल कल्पना है, यह सब इमेजिनेशन है। यह परमात्मा का साक्षात नहीं है।’ रामकृष्ण ने कहा, ‘परमात्मा का साक्षात नहीं है? मुझे साक्षात होता है काली का।’ उस संन्यासी ने कहा, ‘काली का साक्षात परमात्मा का नहीं है।’
किसी को काली का होता है, किसी को क्राइस्ट का होता है, किसी को कृष्ण का होता है। ये सब मन की ही कल्पनाएं हैं। परमात्मा के साक्षात का कोई रूप नहीं है। और परमात्मा का कोई चेहरा नहीं है, और परमात्मा का कोई ढंग नहीं है, और कोई आकार नहीं है। जिस क्षण चेतना निराकार में पहुंचती है, उस क्षण वह परमात्मा में पहुंचती है।
परमात्मा का साक्षात नहीं होता है, परमात्मा से सम्मिलन होता है। आमने-सामने कोई खड़ा नहीं होता कि इस तरफ आप खड़े हैं, उस तरफ परमात्मा खड़े हुए हैं! एक घड़ी आती है कि आप लीन हो जाते हैं समस्त सत्ता के बीच, जैसे बूंद सागर में गिर जाए। और उस घड़ी में जो अनुभव होता है, वह अनुभव परमात्मा का है।
परमात्मा का साक्षात या दर्शन नहीं होता। परमात्मा के मिलन की एक अनुभूति होती है, जैसे बूंद को सागर में गिरते वक्त अगर हो, तो होगी। तो उस संन्यासी ने कहा, ‘यह तो भूल है। यह तो कल्पना है।’ और उसने रामकृष्ण से कहा कि ‘अपने भीतर जिस भांति इस मूर्ति को आपने खड़ा किया है, उसी भांति इसको दो टुकड़े कर दें। एक कल्पना की तलवार उठाएं और मूर्ति के दो टुकड़े कर दें।’
रामकृष्ण बोले, ‘तलवार! वहां कैसे तलवार उठाऊंगा?’ उस संन्यासी ने कहा, ‘जिस भांति मूर्ति को बनाया, वह भी एक धारणा है। तलवार की भी धारणा करें और तोड़ दें। कल्पना से कल्पना खंडित हो जाए। जब मूर्ति गिर जाएगी और कुछ शेष न रह जाएगा—जगत तो विलीन हो गया है, अब एक मूर्ति रह गयी है, उसको भी तोड़ दें—जब खाली जगह रह जाएगी, तो परमात्मा का साक्षात होगा।’ उसने कहा, ‘जिसको आप परमात्मा समझे हैं, वह परमात्मा नहीं है। परमात्मा को पाने में लास्ट हिंड्रेंस, वह आखिरी अवरोध है, उसको और गिरा दें।’ रामकृष्ण को बड़ा कठिन पड़ा। जिसको इतने प्रेम से संवारा, जिस मूर्ति को वर्षों साधा, जो मूर्ति बड़ी मुश्किल से जीवित मालूम होने लगी, उसको तोड़ना! वे बार-बार आंख बंद करते और वापस लौट आते और वे कहते कि ‘यह कुकृत्य मुझसे नहीं हो सकेगा!’ उस संन्यासी ने कहा, ‘नहीं हो सकेगा, तो परमात्मा का सान्निध्य नहीं होगा।’ उस संन्यासी ने कहा, ‘परमात्मा से तुम्हारा प्रेम थोड़ा कम है। एक मूर्ति को तुम परमात्मा के लिए हटाने के लिए राजी नहीं हो!’ उसने कहा, ‘परमात्मा से तुम्हारा प्रेम थोड़ा कम है। एक मूर्ति को तुम परमात्मा के लिए हटाने को राजी नहीं हो!’
हमारा भी परमात्मा से प्रेम बहुत कम है। हम भी बीच में मूर्तियां लिए हुए हैं, और संप्रदाय लिए हुए हैं, और ग्रंथ लिए हुए हैं। और कोई उनको हटाने को राजी नहीं है।
उसने कहा कि ‘तुम बैठो ध्यान में और मैं तुम्हारे माथे को कांच से काट दूंगा। और जब तुम्हें भीतर लगे कि मैं तुम्हारे माथे को कांच से काट रहा हूं, एक हिम्मत करना और दो टुकड़े कर देना।’ रामकृष्ण ने वह हिम्मत की और जब उनकी हिम्मत पूरी हुई, उन्होंने मूर्ति के दो टुकड़े कर दिए। तो लौटकर उन्होंने कहा, ‘आज पहली दफा समाधि उपलब्ध हुई। आज पहली दफा जाना कि सत्य क्या है। आज पहली दफे कल्पना से मुक्त हुए और सत्य में प्रविष्ट हुए।’
तो इसलिए मैं किसी कल्पना करने को नहीं कह रहा हूं। कल्पना का मतलब यह, किसी ऐसी कल्पना को करने को नहीं कह रहा हूं, जो कि बाधा हो जाए। और जो थोड़ी-सी बातें मैंने कही हैं—जैसे चक्रों की, जैसे श्वास की—इनसे कोई बाधाएं नहीं, क्योंकि इनसे कोई प्रेम पैदा नहीं होता। और इनसे कोई मतलब नहीं है। ये केवल कृत्रिम उपाय हैं, जिनके माध्यम से भीतर प्रवेश हो जाएगा। और ये बाधाएं नहीं हो सकते हैं। तो केवल उन कल्पनाओं के प्रयोग की बात कर रहा हूं, जो अंततः ध्यान में प्रवेश होने में बाधा न बन जाएं। इसलिए मैंने किसी का ध्यान करने को आपको नहीं कहा है, सिर्फ ध्यान में जाने को कहा है। ध्यान करने को नहीं, ध्यान में जाने को कहा है। किसी का ध्यान नहीं करना है, अपने भीतर ध्यान में पहुंचना है। इसे थोड़ा स्मरण रखेंगे, तो बहुत-सी बातें साफ हो सकेंगी।
22 नव॰ 2016
कैसे सुप्त चेतना जागृत करें
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On: नवंबर 22, 2016
सुप्त चेतना को जागृत करना जैसे तीसरी आँख का खुल जाना ! यहाँ तीसरी आँख का खुलना या चेतना के जागृत (जिसे छठी इन्द्रिय भी कहते हैं) हो जाना उस अवस्था का प्रतीक है, जिसके माध्यम से व्यक्ति इस विश्व को अलौकिक दृष्टि से देख सकता है। हालाँकि यहाँ, तीसरी आँख का उपयोग करना, मतलब संसार से अलिप्त या पागल बन जाना या जादुई शक्तियां प्राप्त करना बिल्कुल नहीं हैं। इसके बजाय, इसका अर्थ है अपने मन और भावनाओं पर बेहतर नियंत्रण रखना और अपने आसपास की दुनिया के बारे में अंतर्ज्ञान की गहन समझ होना। दुर्भाग्य से, यह उपलब्धि रातोरात नहीं होती; इसके लिए आपको अपने जीवन में आध्यात्मिकता को समर्पण के साथ अपनाना होगा जिसके लिए चेतनात्मक दैनिक जागृति की ज़रूरत पड़ेगी। यह कैसे किया जा सकता है यह जानने के लिए आगे पढ़ें।
ध्यान कैसे करें
ध्यान कैसे करें
1. सही माहौल ढूँढें: ऐसी जगह चुने जहाँ अपेक्षाकृत शांति हो और जहां आप कम से कम 30 मिनट के लिए अकेले रह सकें। ज़रूरी नहीं है कि वह संपूर्णतः शांत हो, पर ऐसी जगह खोजने की कोशिश करे जहां आपका ध्यान ज़्यादा भटके नहीं।
2. ध्यान की मुद्रा में आएं: अपने पैरों को सुखासन में मोड़कर बैठे, पीठ सीधी रखें, और हाथों को घुटनों पर टिकाएं। अगर आप ज़मीन पर बैठना आपके लिए सुविधाजनक नहीं है, तो आप पीठ को सीधी रखकर कुर्सी पर बैठ सकते हैं।
- शरीर के ऊपरी हिस्से को आधार देने के लिए पेट की मांसपेशियों का प्रयोग करें, पीढ को झुकने ना दें। सीना बाहर निकालें और कंधे नीचे रखें।
3. शरीर को ढीला छोड़ दें: हर इन्सान अपने शरीर में रोज तनाव लिए जीता है, ऐसी स्थिति में एकाग्र होना बड़ा मुश्किल हो जाता है। जब तक आप उस पर ध्यान देकर उन्हें शिथिल करने के सभान प्रयास नहीं करेंगे तब तक आपको इस बात का पता तक नहीं चलेगा। कंधों को नीचे होने दें, गर्दन के मांसपेशियों को ढीला छोड़े, और शिथिल होने के लिए सिर को धीरे से दाहिनी और बायीं ओर बारी बारी घूमाएं।
4. मन को शांत होने दें: तीसरी आंख को खोलने का यह शायद सबसे महत्वपूर्ण और सबसे चुनौतीपूर्ण हिस्सा है, क्योंकि आपको मन को सारे विचारों से मुक्त करना होगा। इसके लिए अपने घ्यान को भौतिक जगत के किसी भी हिस्से पर केद्रित करें, फिर चाहे वह आते-जाते श्वास और उच्छ्वास हो या बाहर से गुज़रती कारों की आवाज़, या ज़मीन की आपको महसूस हो रही संवेदना।
- विचार से पूरी तरह से मुक्ति पा लेना असंभव है। अगर मन में कोई विचार आए तो उसको स्वीकार करे, मान लें कि एक सिर्फ एक "विचार" आया है और अपने मन की आंखों से ओझल हो जाने दें।
- इसके लिए बहुत अभ्यास और धैर्य चाहिए तभी आप प्रभावी तरीके से अपने विचारों से मुक्ति पा सकेंगे। अक्सर, लोगों को ध्यान के पहले 10-15 मिनट में कठिनाई होती है।, क्योंकि उनका मन रोज की ज़िंदगी के वही कोलाहल में लगा होता है। अपने आपको बाह्य विश्व से ध्यान की स्थिति का सफर तय करने के लिए थोड़ा वक्त दें।
5 . रोज़ ध्यान करने की आदत डालें: समझ लो कि ध्यान सुबह ब्रश करने जैसा है, जितनी ज्यादा बार करेंगे वह उतना ही ज़्यादा प्रभावी बनेगा। रोज़ अगर आप केवल 3-5 मिनट के लिए भी ध्यान करेंगे तो, समय के साथ धीरे धीरे आप खुदको अपने मन को समान प्रयासो से जागृत होने के लिए प्रशिक्षित कर देंगे।
- आप ध्यान के समय के लिए टाइमर भी सेट कर सकते हैं ताकि ध्यान करते सारा वक्त आपका ध्यान, अभी और कितनी देर बैठना है यह सोचने में व्यतीत न हो जाए।
अपने अन्तरज्ञान को जागृत करें
1. अपने आसपास की दुनिया का अवलोकन करें: कुछ लोग अपने आपको "दिव्यदृष्टा" मानते है, उनको यह भी लगता है कि उनका दुनिया के बारे में अन्तरज्ञान औसत व्यक्ति की तुलना में ज्य़ादा है, और वह बात सच भी हो सकती है। वे अपना बहुत बहुत सा वक्त अन्य लोगों का अवलोकन करने में व्यतीत करते है, और ऐसा करने से उनमें शरीर के अंगो की भाषा, चेहरे के हावभाव, और अन्य अप्रकट प्रकार के संचार की बेहतर समझ आकार लेती है। इससे वे झूठ, व्यंग्य, यौन समीकरण, और अन्य गुप्त संदेशों का बेहतर पता लगा सकते हैं।
- खुद पार्क, रेस्टोरेंट, या कैफे जैसे सार्वजनिक स्थान पर जाएं और सिर्फ लोगों का निरीक्षण करें। दूसरे लोगों के संवाद सुनें, पर ध्यान रहे कि आप असभ्य या गले पड़ते न दिखें। अपने मन में ये लोग एक दूसरे को कैसे जानते होंगे, उनकी बातचीत का संदर्भ क्या होगा, या उनके बारे में अन्य कोई भी जानकारी की कल्पना करें। इस प्रक्रिया को जितना ज़्यादा करते जाएंगे, उतने आप बेहतर होते जाएंगे।
- अगली बार जब आप परिवार या दोस्तों के साथ एक मेज के पर बैठे हो, तब थोड़ी देर के लिए शांत रहे और सिर्फ उनके संवाद सुनें। जो लोग नहीं बोल रहे हैं उनका निरीक्षण करें, और वे जो संवाद चल रहा है उस पर क्या प्रतिक्रिया दे रहे हैं यह देखें। इस बात की कल्पना करें कि जब लोग मौन होते हैं तब उनके मन में क्या चल रहा होता है। फिर से वही बात कि, जितना ज्यादा करेंगे उतना असरदार काम होगा।
2..अपने सपनों पर ध्यान दें: मानसिक शक्तियों वाले कुछ लोग मानते है कि कुछ विशिष्ट सपने हमें पूर्वचेतावनी देने के लिए आते हैं। आप अपने सपनों का विश्लेषण शुरू करे इससे पहले आपको इसको नियमित रूप से लिखने होंगे और बाद में उन पर नज़र रखनी होगी। इसका सबसे बेहतर तरीका है सपनों की डायरी बनाने का, और उसे बिस्तर के पास रखकर सपनों या नींद से जागकर तुरन्त ही अपने सपने लिख लेने का।
- अपने सपनें मन में याद रखें और वास्तविक दैनिक जीवन और स्वप्नों के बीच संबंध खोजने की कोशिश करें। याद करें कि क्या पिछले दो दिन या सप्ताह पहले देखे सपनों में से कुछ भी वास्तविक जीवन में सच में हो गया है।
3.. अपने अंदर की आवाज़ को सुनना: क्या कभी आपको किसी व्यक्ति, स्थल या घटना को देखकर आप वर्णन ना कर सकें ऐसी विशेष अनुभूति हुई है? कभी कोई भी ठोस सबूत के बिना ही आपको ऐसा आभास हुआ है कि कोई निश्चित घटना घट सकती है? इस प्रकार की भावनाओं को अंतःस्फुरणा या अंदर की आवाज़ कहते है, और वो सबके साथ होता है। दुर्भाग्य से, बहुत लोग जीवन में अपने सहज ज्ञान को अनदेखा करके तर्क पर कुछ ज्य़ादा ही आधारित रहते हैं। अगली बार ऐसी अनुभूति हो, तो उसे लिख लें और वह सच होती है या नहीं वह देखें। यह जानने की कोशिश करे कि यह अंदर की आवाज़ का आपके जीवन के साथ क्या रिश्ता है।
- याद रखें कि सिर्फ अंदर से आवाज़ सुनाई दी है इसलिए वह सही ही होगी ऐसा आवश्यक नहीं है। उसके विपरीत, अगर वह सच है फिर भी वह घटना वास्तविक जीवन में दिन, माह और सालों तक ना घटे ऐसा हो सकता है। पता लगाने का सबसे बेहतर तरीका है कि आपको जब भी ऐसी अनुभूतियां होती तो उन्हें लिख ले और समय समय पर पढ़ा करें।
सलाह
- और एक चीज़ है डीजा वू, अगर कभी आपको इस उलझन से भरी दुविधा का अनुभव हो तो, उसे लिख लें। इसका अर्थ यह हो सकता है कि किसी सपने को याद कर रहे हो या फिर भविष्य को।
- अधिक जानकारी के लिए starseeds (स्टारसीड्स) के बारे में खोजें।
- आप के अंदर, कहीं ना कहीं, पूरा ब्रह्मांड छुपा हुआ है।
- ध्यान करने से आपको अच्छा लगेगा तो रोज़ कम से कम 5-30 मिनट ध्यान करें, इससे आपका मन प्रबुद्ध होगा।
- बहुत लोग आत्मबोध से वंचित रह जाते है क्योंकि वे दैनिक जीवन के विचार, प्रवृत्तियां और व्यस्तताओं में बहुत फंस चुके हैं। अगर आप सचेत रूप से अपने मन से ज्यादा जागरूक बनना चाहते हैं तो रोज़ ध्यान करने के लिए कम से कम चंद मिनट निकालने होंगें।
- किसी ध्यान के ग्रुप में जुड़ जाएं या ध्यान के क्लास में जाएं। गुरु आपको सही दिशा का मार्गदर्शन दे सकते हैं, और अन्य लोगों के साथ ध्यान करने से एकाग्र होने में आसानी होगी।
तीसरी आँख को विकसित करने लिए कुछ महत्वपूर्ण ध्यान-teesri aakh ko viksit kare.
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On: नवंबर 22, 2016
लाओत्से ने कहा: व्यक्ति नासाग्र की और देखे।
क्यों—क्योंकि इससे मदद मिलती है, यह प्रयोग तुम्हें तृतीय नेत्र की रेखा पर ले आता है। जब तुम्हारी दोनों आंखें नासाग्र पर केंद्रित होती है तो उससे कई बातें होती है। मूल बात यह है कि तुम्हारा तृतीय नेत्र नासाग्र की रेखा पर है—कुछ इंच ऊपर, लेकिन उसी रेखा में। और एक बार तुम तृतीय नेत्र की रेखा में आ जाओ तो तृतीय नेत्र का आकर्षण उसका खिंचाव, उसका चुम्बकत्व रतना शक्तिशाली है कि तुम उसकी रेखा में पड़ जाओं तो अपने बावजूद भी तुम उसकी और खींचे चले आओगे। तुम बस ठीक उसकी रेखा में आ जाना है, ताकि तृतीय नेत्र का आकर्षण, गुरुत्वाकर्षण सक्रिय हो जाए। एक बार तुम ठीक उसकी रेखा में आ जाओं तो किसी प्रयास की जरूरत नहीं है।
अचानक तुम पाओगे कि गेस्टाल्ट बदल गया, क्योंकि दो आंखें संसार और विचार का द्वैत पैदा करती है। और इन दोनों आंखों के बीच की एक आँख अंतराल निर्मित करती है। यह गेस्टाल्ट को बदलने की एक सरल विधि है।
मन इसे विकृत कर सकता है—मन कह सकता है, ‘’ठीक अब, नासाग्र को देखो। नासाग्र का विचार करो, उस चित को एकाग्र करो।‘’ यदि तुम नासाग्र पर बहुत एकाग्रता साधो तो बात को चूक जाओगे, क्योंकि होना तो तुम्हें नासाग्र पर है, लेकिन बहुत शिथिल ताकि तृतीय नेत्र तुम्हें खींच सके। यदि तुम नासाग्र पर बहुत ही एकाग्रचित्त, मूल बद्ध, केंद्रित और स्थिर हो जाओ तो तुम्हारा तृतीय नेत्र तुम्हें भीतर नहीं खींच सकेगा क्योंकि वह पहले कभी भी सक्रिय नहीं हुआ। प्रारंभ में उसका खिंचाव बहुत ज्यादा नहीं हो सकता। धीरे-धीरे वह बढ़ता जाता है। एक बार वह सक्रिय हो जाए और उपयोग में आने लगे, तो उसके चारों और जमी हुई धूल झड़ जाए, और यंत्र ठीक से चलने लगे। तुम नासाग्र पर केंद्रित भी हो जाओ तो भी भीतर खींच लिए जाओगे। लेकिन शुरू-शुरू में नहीं। तुम्हें बहुत ही हल्का होना होगा, बोझ नहीं—बिना किसी खींच-तान के। तुम्हें एक समर्पण की दशा में बस वहीं मौजूद रहना होगा।…..
‘’यदि व्यक्ति नाक का अनुसरण नहीं करता तो यह तो वह आंखें खोलकर दूर देखता है जिससे कि नाक दिखाई न पड़े अथवा वह पलकों को इतना जोर से बंद कर लेता है कि नाक फिर दिखाई नहीं पड़ती।‘’
नासाग्र को बहुत सौम्यता से देखने का एक अन्य प्रयोजन यह भी है: कि इससे तुम्हारी आंखें फैल कर नहीं खुल सकती। यदि तुम अपनी आंखे फैल कर खोल लो तो पूरा संसार उपलब्ध हो जाता है। जहां हजारों व्यवधान है। कोई सुंदर स्त्री गुजर जाती है और तुम पीछा करने लगते हो—कम से कम मन में। या कोई लड़ रहा है; तुम्हारा कुछ लेना देना नहीं है, लेकिन तुम सोचने लगते हो कि ‘’क्या होने वाला है?’’ या कोई रो रहा है और तुम जिज्ञासा से भर जाते हो। हजारों चीजें सतत तुम्हारे चारों और चल रही है। यदि आंखे फैल कर खुली हुई है तो तुम पुरूष ऊर्जा—याँग—बन जाते हो।
यदि आंखे बिलकुल बंद हो तो तुम एक प्रकार सी तंद्रा में आ जाते हो। स्वप्न लेने लगते हो। तुम स्त्रैण ऊर्ज—यन—बन जाते हो। दोनों से बचने के लिए नासाग्र पर देखो—सरल सी विधि है, लेकिन परिणाम लगभग जादुई है।
और ऐसा केवल ताओ को मानने वालों के साथ ही है। बौद्ध भी इस बात को जानते है, हिंदू भी जानते है। ध्यानी साधक सदियों से किसी न किसी तरह इस निष्कर्ष पर पहुंचते रहे है कि आंखे यदि आधी ही बंद हों तो अत्यंत चमत्कारिक ढंग से तुम दोनों गड्ढों से बच जाते हो। पहली विधि में साधक बह्म जगत से विचलित हो रहा है। और दूसरी विधि में भीतर के स्वप्न जगत से विचलित हो रहा है। तुम ठीक भीतर और बाहर की सीमा पर बने रहते हो और यही सूत्र है: भीतर और बाहर की सीमा पर होने का अर्थ है उस क्षण में तुम न पुरूष हो न स्त्री हो तुम्हारी दृष्टि द्वैत से मुक्त है; तुम्हारी दृष्टि तुम्हारे भीतर के विभाजन का अतिक्रमण कर गई। जब तुम अपने भीतर के विभाजन से पार हो जाते हो, तभी तुम तृतीय नेत्र के चुम्बकीय क्षेत्र की रेखा में आते हो।
‘’मुख्य बात है पलकों को ठीक ढंग से झुकाना और तब प्रकाश को स्वयं ही भीतर बहने देना।‘’
इसे स्मरण रखना बहुत महत्वपूर्ण है: तुम्हें प्रकाश को भीतर नहीं खींचना है, प्रकाश को बलपूर्वक भीतर नहीं लाना है। यदि खिड़की खुली हो तो प्रकाश स्वयं ही भीतर आ जाता है। यदि द्वार खुला हो तो भीतर प्रकाश की बाढ़ जा जाती है। तुम्हें उसे भीतर प्रकाश की बाढ़ आ जाती है। तुम्हें उसे भीतर लाने की जरूरत नहीं है। उसे भीतर धकेलने की जरूरत नहीं है। भीतर घसीटने की जरूरत नहीं है। और तुम प्रकाश को भी तर कैसे घसीट सकते हो? प्रकाश को तुम भीतर कैसे धकेल सकते हो? इतना ही चाहिए कि तुम उसके प्रति खुले और संवेदनशील रहो।…..
‘’दोनों आंखों से नासाग्र को देखना है।‘’
स्मरण रखो, तुम्हें दोनों आँखो से नासाग्र को देखना है ताकि नासाग्र पर दोनों आंखे अपने द्वैत को खो दें। तो जो प्रकाश तुम्हारी आंखों से बाहर बह रहा है वह नासाग्र पर एक हो जाता है। वह एक केंद्र पर आ जाता है। जहां तुम्हारी दोनों आंखें मिलती है, वहीं स्थान है जहां खिड़की खुलती है। और फिर सब शुभ है। फिर इस घटना को होने दो, फिर तो बस आदत मनाओ, उत्सव मनाओ, हर्षित होओ। प्रफुल्लित होओ। फिर कुछ भी नहीं करना है।
‘’दोनों आंखों से नासाग्र को देखना है, सीधा होकर बैठता है।‘’
सीधी होकर बैठना सहायक है। जब तुम्हारी रीढ़ सीधी होती है। तुम्हारे काम-केंद्र की ऊर्जा भी तृतीय नेत्र को उपलब्ध हो जाती है। सीधी-सादी विधियां है, कोई जटिलता इनमें नहीं है, बस इतना ही है कि जब दोनों आंखें नासाग्र पर मिलती है, तो तुम तृतीय नेत्र के लिए उपलब्ध कर दो। फिर प्रभाव दुगुना हो जाएगा। प्रभाव शक्तिशाली हो जाएगा, क्योंकि तुम्हारी सारी ऊर्जा काम केंद्र में ही है। जब रीढ़ सीधी खड़ी होती है तो काम केंद्र की ऊर्जा भी तृतीय नेत्र को उपलब्ध हो जाती है। यह बेहतर है कि दोनों आयामों से तृतीय नेत्र पर चोट की जाए, दोनों दिशाओं से तृतीय नेत्र में प्रवेश करने की चेष्टा की जाए।
‘’व्यक्ति सीधा होकर और आराम देह मुद्रा में बैठता है।‘’
सदगुरू चीजों को अत्यंत स्पष्ट कर रहे है। सीधे होकर, निश्चित ही, लेकिन इसे कष्टप्रद मत बनाओ; वरन फिर तुम अपने कष्ट से विचलित हो जाओगे। योगासन का यही अर्थ है। संस्कृत शब्द ‘’आसन’’ का अर्थ है: एक आरामदेह मुद्रा। आराम उसका मूल गुण है। यदि वह आरामदेह न हो तो तुम्हारा मन कष्ट से विचलित हो जाएगा। मुद्रा आरामदेह ही हो…..
‘’और इसका अर्थ अनिवार्य रूप से सिर के मध्य में होना नहीं है।‘’
और केंद्रिय होने का अर्थ यह नहीं है कि तुम्हें सिर के मध्य में केंद्रित होना है।
‘’केंद्र सर्वव्यापी है; सब कुछ उसमें समाहित है; वह सृष्टि की समस्त प्रक्रिया के निस्तार से जुड़ा हुआ है।‘’
और जब तुम तृतीय नेत्र के केंद्र पर पहुंच कर वहां केंद्रित हो जाते हो और प्रकाश बाढ़ की भांति भीतर आने लगता है, तो तुम उस बिंदु पर पहुंच गए, जहां से पूरी सृष्टि उदित हुई है। तुम निराकार और अप्रकट पर पहुच गए। चाहो तो उसे परमात्मा कह लो। यही वह बिंदु है, यह वह आकाश है, जहां से सब जन्मा है। यही समस्त अस्तित्व का बीज है। यह सर्वशक्तिमान है। सर्वव्यापी है, शाश्वत है।……
‘’ध्यान की साधन अपरिहार्य है।‘’
ध्यान क्या है?—निर्विचार का एक क्षण। निर्विचार की एक दशा, एक अंतराल। और यह सदा ही घट रहा है, लेकिन तुम इसके प्रति सजग नहीं हो; वरना तो इसमें कोई समस्या नहीं है। एक विचार आता है, फिर दूसरा आता है, और उन दो विचारों के बीच में सदा एक छोटा सा अंतराल होता है। और वह अंतराल ही दिव्य का द्वार है, वह अंतराल ही ध्यान है। यदि तुम उस अंतराल ही ध्यान है। यदि तुम उस अंतराल में गहरे देखो, तो वह बड़ा होने लगता है।
मन ट्रैफिक से भरी हुई एक सड़क की तरह है; एक कार गुजरती है फिर दूसरी कार गुजरती है फिर दूसरी कार गुजरती है। और तुम कारों से इतने ज्यादा ग्रसित हो कि तुम्हें वह अंतराल तो दिखाई ही नहीं पड़ता जो दो कारों के बीच सदा मौजूद है। वरना तो कारें आपस में टकरा जाएंगी। वे टकराती नहीं; उनके बीच में कुछ है जो उन्हें अलग रखता है। तुम्हारे विचार आपस में नहीं टकराते, एक दूसरे पर नहीं चढ़ते, एक दूसरे में नहीं मिल जाते। वे किसी भी तरह एक दूसरे पर नहीं चढ़ते। हर विचार की अपनी सीमा होता है, हार विचार परिभाष्य होता है। लेकिन विचारों का जुलूस इतना तेज होता है, इतना तीव्र होता है कि अंतराल को तुम तब तक नहीं देख सकते, जब तक कि तुम उसकी प्रतीक्षा नहीं कर रहे हो। उसकी खोज नहीं कर रहे हो।
ध्यान का अर्थ है गेस्टाल्ट को बदल डालना। साधारणत: हम विचारों को देखते है: एक विचार, दूसरा विचार, फिर कोई और विचार। जब तुम गेस्टाल्ट को बदल देते हो तो तुम एक अंतराल को देखते हो, फिर दूसरे अंतराल को देखते हो। तुम्हारा आग्रह विचार पर नहीं रहता। अंतराल पर आ जाता है।
‘’यदि सांसारिक विचार उठे तो व्यक्ति जड़ न बैठा रहे, वरन निरीक्षण करे कि विचार कहां से शुरू हुआ, और कहां विलीन हुआ।‘’
यह पहले ही प्रयास में नहीं होने वाला है। तुम नासाग्र पर देख रहे होओगे और विचार आ जाएंगे। वे इतने जन्मों से आते रहे है कि इतनी सरलता से तुम्हें नहीं छोड़ सकते। वे तुम्हारा हिस्सा बन गए है। तुम करीब-करीब एक पूर्वनिर्धारित जीवन जी रहे हो।
ऐसा होता है: जब लोग ध्यान में शांत होकर बैठते है, तो सामान्यत: जितने विचार आते है। तब उससे अधिक विचार आते है—असमान्य विस्फोट होते है। लाखों विचार दौड़ें चले आते है, क्योंकि उनका अपना स्वार्थ है तुम्हें, और तुम उनकी ताकत से बाहर निकलने की चेष्टा कर रहे हो? तुम शांत होकर बैठे नहीं रह सकते। तुम्हें कुछ करना पड़ेगा। संघर्ष से तो कोई लाभ नहीं होगा। क्योंकि तुम यदि संघर्ष करने लगे तो तुम नासाग्र पर देखना भूल जाओगे। तृतीय नेत्र का, प्रकाश के प्रवाह को बोध खो जाएगा; तुम सब भूल कर विचारों के जंगल में खो जाओगे। यदि तुम विचारों का पीछा करने लगे तो तुम खो गए। उसका अनुसरण करने लगे तो तुम खो गए। उनके साथ तुम संघर्ष करने लगे तो भी तुम खो गए। तो फिर क्या करना?
और यही राज है। बुद्ध भी इसी राज को उपयोग में लाए। वास्तव में सभी राज तो लगभग एक से ही है क्योंकि मनुष्य यही है—ताला वही है, जो कुंजी भी वहीं होनी चाहिए। यही राज है; बुद्ध इसे सम्मा सती, सम्यक स्मृति कहते है। इतना स्मरण रखो: यह विचार आया है, बिना किसी विरोध, बिना किसी दलील , बिना किसी निंदा के देखो कि वह है, कहां एक वैज्ञानिक की भांति निरीक्षक हो रहो। देखो कि वह कहां है, कहां से आ रहा है। कहां जा रहा है। उसके आने को देखो उसके रूकने को देखो उसके जाने को देखो। और विचार बहुत गत्यात्मक है; वे देर तक नहीं रुकते। तुम्हें तो बस विचार के उठने उसके रूकने, उसके जाने को देखना भर है। न संघर्ष करने की चेष्टा करो। न अनुसरण करो, बस एक मौन निरीक्षक बने रहो। और तुम्हें हैरानी होगी; निरीक्षक जितना थिर हो जाता है, विचार उतने ही कम आएँगे। जब निरीक्षक बिलकुल पूर्ण हो जाता है तो विचार समाप्त हो जाते है। बस एक अंतराल, एक मध्यांतर ही बचता है।
लेकिन एक बात और याद रखना: मन फिर से एक चाल चल सकता है।
‘’प्रतिबिंब को आगे सरकाने से कुछ भी प्राप्त नहीं होता।‘’
यही फ्रायडियन मनोविश्लेषण भी है: विचारों की मुक्त साहचर्य शृंखला। एक विचार आता है, और फिर तुम दूसरे विचार की प्रतीक्षा करते हो, और फिर तीसरे की, और यह पूरी शृंखला है। … हर मनोविश्लेषण यही कहता है—तुम अतीत में पीछे जाने लगते हो। एक विचार दूसरे से जुड़ा होता है। और यह शृंखला अनंत तक चलती है। उसका काई अंत नहीं है। यदि तुम उसके भीतर जाने लगो तो तुम एक अनंत यात्रा पर निकल जाओगे। और यह बिलकुल अपव्यय होगा। मन ऐसा कर सकता है। तो इसके प्रति सजग रहो।….
मन के द्वारा तुम मन के पार नहीं जा सकेत। इसलिए व्यर्थ में अनावश्यक चेष्टा मत करो। वरना एक बात तुम्हें दूसरे में ले जाएगी। और ऐस आगे से आगे चलता रहेगा। और तुम बिलकुल भूल ही जाओगे कि तुम क्या करने का प्रयास कर रहे थे। नासाग्र गायब हो जाएगा। तृतीय नेत्र भूल जाएगा। और प्रकाश का प्रवाह तो तुमसे मीलों दूर चला जाएगा। तो ये दो बातें स्मरण रखने की है, ये दो पंख है। एक: जब अंतराल आ जाएं, कोई विचार न चलता हो, तो ध्यान करो। जब कोई विचार आए तो बस इन तीन बातों को देखो: विचार कहां है, वह कहां से आया है और कहां जा रहा है। एक क्षण के लिए अंतराल को देखना छोड़ दो और विचार को देखो, उसे अलविदा करो। जब वह चला जाए, तो फिर से ध्यान के अभ्यास पर वापस लौट आओ।
‘’जब विचारों की उड़ान आग बढती जाए, जो व्यक्ति को रूक कर विचारों का निरीक्षण करना चाहिए। इस प्रकार वह ध्यान भी करे और तब फिर से निरीक्षण शुरू करे।‘’
तो जब भी विचार आता है, तब निरीक्षण करो। जब भी विचार जाता है तब ध्यान करो।
‘’यह संबोधि को तीव्रता से लाने का दोहरा उपाय है। संबोधि का अर्थ है प्रकाश का वृताकार प्रवाह। प्रवाह है निरीक्षण और प्रकाश है ध्यान।‘’
जब भी तुम ध्यान करोगे तो प्रकाश को भीतर प्रवेश करता पाओगे, और जब भी तुम एकाग्र होकर देखोगें तो प्रवाह को निर्मित करोगे। प्रवाह को संभव बनाओगे। दोनों की ही जरूरत है।
‘’प्रकाश ध्यान है। ध्यान के बिना निरीक्षण का अर्थ है प्रकाश के बिना प्रवाह।‘’
यही हुआ है। हठयोग के साथ यही दुर्घटना घटी है। वे निरीक्षण तो करते है, चित को एकाग्र तो करते है, लेकिन प्रकाश को भूल जाते है। अतिथि के विषय में वक बिलकुल भूल गए है। वे बस घर को तैयार किए चले जाते है; वे घर को तैयार करने में इतने उलझ गए है कि वे उस प्रयोजन को ही भूल गए है। जिसके लिए घर की तैयारी है। हठ योगी सतत अपने शरीर को तैयार करता है, शरीर को शुद्ध करता है,
योगासन, प्राणायाम करता है। और आजीवन करता ही चला जाता है। वह भूल ही गया है कि यह सब वह कर किस लिए रहा है। और प्रकाश बाहर खड़ा है लेकिन हठ योगी उसे भीतर नहीं आने दे रहे है। क्योंकि प्रकाश तभी भीतर आ सकता है तब तुम पूर्णता: समर्पण की दशा में आ जाओ।
‘’ध्यान के बिना निरीक्षण का अर्थ है प्रकाश के बिना प्रवाह।‘’
तथाकथित योगियों के साथ यही दुर्घटना घटी है। दूसरी दुर्घटना मनोविश्लेषकों और दार्शनिकों के साथ घटी है।
‘’निरीक्षण के बिना ध्यान का अर्थ है प्रवाह के बिना प्रकाश।‘’
वे प्रकाश पर विचार करते है, लेकिन उन्होंने प्रकाश की बाढ़ भीतर आ सके इसके लिए तैयारी नहीं की है; वे प्रकाश पर केवल विचार करते है। वे अतिथि के विषय में सोचते है, अतिथि के विषय में हजारों बातों की कल्पना करते है, लेकिन उनका घर तैयार नहीं है। दोनों की चूक रहे है।
‘’इसका ख्याल रखो।‘’
दोनों में से किसी भी भ्रांति में मत गिरो। यदि तुम सचेत रह सको तो यह अत्यंत सरल सी प्रक्रिया है और गहन रूप से रूपांतरणकारी है। जो व्यक्ति ठीक ढंग से समझ ले वह एक क्षण में ही एक भिन्न वास्तविकता में प्रवेश कर सकता है।
21 नव॰ 2016
विपस्सना कैसे की जाती है? meditation vipassana
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On: नवंबर 21, 2016
विपस्सना मनुष्य-जाति के इतिहास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ध्यान-प्रयोग है। जितने व्यक्ति विपस्सना से बुद्धत्व को उपलब्ध हुए उतने किसी और विधि से कभी नहीं। विपस्सना अपूर्व है! विपस्सना शब्द का अर्थ होता है: देखना, लौटकर देखना। बुद्ध कहते थे: इहि पस्सिको, आओ और देखो! बुद्ध किसी धारणा का आग्रह नहीं रखते। बुद्ध के मार्ग पर चलने के लिए ईश्वर को मानना न मानना, आत्मा को मानना न मानना आवश्यक नहीं है। बुद्ध का धर्म अकेला धर्म है इस पृथ्वी पर जिसमें मान्यता, पूर्वाग्रह, विश्वास इत्यादि की कोई भी आवश्यकता नहीं है। बुद्ध का धर्म अकेला वैज्ञानिक धर्म है। बुद्ध कहते: आओ और देख लो। मानने की जरूरत नहीं है। देखो, फिर मान लेना। और जिसने देख लिया, उसे मानना थोड़े ही पड़ता है; मान ही लेना पड़ता है। और बुद्ध के देखने की जो प्रक्रिया थी, दिखाने की जो प्रक्रिया थी, उसका नाम है विपस्सना।
विपस्सना बड़ा सीधा-सरल प्रयोग है। अपनी आती-जाती श्वास के प्रति साक्षीभाव। श्वास जीवन है। श्वास से ही तुम्हारी आत्मा और तुम्हारी देह जुड़ी है। श्वास सेतु है। इस पार देह है, उस पार चैतन्य है, मध्य में श्वास है। यदि तुम श्वास को ठीक से देखते रहो, तो अनिवार्य रूपेण, अपरिहार्य रूप से, शरीर से तुम भिन्न अपने को जानोगे। श्वास को देखने के लिए जरूरी हो जायेगा कि तुम अपनी आत्मचेतना में स्थिर हो जाओ। बुद्ध कहते नहीं कि आत्मा को मानो। लेकिन श्वास को देखने का और कोई उपाय ही नहीं है। जो श्वास को देखेगा, वह श्वास से भिन्न हो गया, और जो श्वास से भिन्न हो गया वह शरीर से तो भिन्न हो ही गया। क्योंकि शरीर सबसे दूर है; उसके बाद श्वास है; उसके बाद तुम हो। अगर तुमने श्वास को देखा तो श्वास के देखने में शरीर से तो तुम अनिवार्य रूपेण छूट गए। शरीर से छूटो, श्वास से छूटो, तो शाश्वत का दर्शन होता है। उस दर्शन में ही उड़ान है, ऊंचाई है, उसकी ही गहराई है। बाकी न तो कोई ऊंचाइयां हैं जगत में, न कोई गहराइयां हैं जगत में। बाकी तो व्यर्थ की आपाधापी है।
फिर, श्वास अनेक अर्थों में महत्वपूर्ण है। यह तो तुमने देखा होगा, क्रोध में श्वास एक ढंग से चलती है, करुणा में दूसरे ढंग से। दौड़ते हो, एक ढंग से चलती है; आहिस्ता चलते हो, दूसरे ढंग से चलती है। चित्त ज्वरग्रस्त होता है, एक ढंग से चलती है; तनाव से भरा होता है, एक ढंग से चलती है; और चित्त शांत होता है, मौन होता है, तो दूसरे ढंग से चलती है। श्वास भावों से जुड़ी है। भाव को बदलो, श्वास बदल जाती है़। श्वास को बदल लो, भाव बदल जाते हैं। जरा कोशिश करना। क्रोध आये, मगर श्वास को डोलने मत देना। श्वास को थिर रखना, शांत रखना। श्वास का संगीत अखंड रखना। श्वास का छंद न टूटे। फिर तुम क्रोध न कर पाओगे। तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे, करना भी चाहोगे तो क्रोध न कर पाओगे। क्रोध उठेगा भी तो भी गिर-गिर जायेगा। क्रोध के होने के लिए जरूरी है कि श्वास आंदोलित हो जाये। श्वास आंदोलित हो तो भीतर का केंद्र डगमगाता है। नहीं तो क्रोध देह पर ही रहेगा। देह पर आये क्रोध का कुछ अर्थ नहीं है, जब तक कि चेतना उससे आंदोलित न हो। चेतना आंदोलित हो, तो ज़ुड गये।
फिर इससे उल्टा भी सच है: भावों को बदलो, श्वास बदल जाती है। तुम कभी बैठे हो सुबह उगते सूरज को देखते नदी-तट पर। भाव शांत हैं। कोई तरंगें नहीं चित्त में। उगते सूरज के साथ तुम लवलीन हो। लौटकर देखना, श्वास का क्या हुआ? श्वास बड़ी शांत हो गयी। श्वास में एक रस हो गया, एक स्वाद...छंद बंध गया! श्वास संगीतपूर्ण हो गयी। विपस्सना का अर्थ है शांत बैठकर, श्वास को बिना बदले...खयाल रखना प्राणायाम और विपस्सना में यही भेद है। प्राणायाम में श्वास को बदलने की चेष्टा की जाती है, विपस्सना में श्वास जैसी है वैसी ही देखने की आकांक्षा है। जैसी है—ऊबड़-खाबड़ है, अच्छी है, बुरी है, तेज है, शांत है, दौड़ती है, भागती है, ठहरी है, जैसी है!
बुद्ध कहते हैं, तुम अगर चेष्टा करके श्वास को किसी तरह नियोजित करोगे, तो चेष्टा से कभी भी महत फल नहीं होता। चेष्टा तुम्हारी है, तुम ही छोटे हो; तुम्हारी चेष्टा तुमसे बड़ी नहीं हो सकती। तुम्हारे हाथ छोटे हैं; तुम्हारे हाथ की जहां-जहां छाप होगी, वहां-वहां छोटापन होगा।
इसलिए बुद्ध ने यह नहीं कहा है कि श्वास को तुम बदलो। बुद्ध ने प्राणायाम का समर्थन नहीं किया है। बुद्ध ने तो कहा: तुम तो बैठ जाओ, श्वास तो चल ही रही है; जैसी चल रही है बस बैठकर देखते रहो। जैसे राह के किनारे बैठकर कोई राह चलते यात्रियों को देखे, कि नदी-तट पर बैठ कर नदी की बहती धार को देखे। तुम क्या करोगे? आई एक बड़ी तरंग तो देखोगे और नहीं आई तरंग तो देखोगे। राह पर निकली कारें, बसें, तो देखोगे; नहीं निकलीं, तो देखोगे। गाय-भैंस निकलीं, तो देखोगे। जो भी है, जैसा है, उसको वैसा ही देखते रहो। जरा भी उसे बदलने की आकांक्षा आरोपित न करो। बस शांत बैठ कर श्वास को देखते रहो। देखते-देखते ही श्वास और शांत हो जाती है। क्योंकि देखने में ही शांति है।
और निर्चुनाव—बिना चुने देखने में बड़ी शांति है। अपने करने का कोई प्रश्न ही न रहा। जैसा है ठीक है। जैसा है शुभ है। जो भी गुजर रहा है आंख के सामने से, हमारा उससे कुछ लेना-देना नहीं है। तो उद्विग्न होने का कोई सवाल नहीं, आसक्त होने की कोई बात नहीं। जो भी विचार गुजर रहे हैं, निष्पक्ष देख रहे हो। श्वास की तरंग धीमे-धीमे शांत होने लगेगी। श्वास भीतर आती है, अनुभव करो स्पर्श...नासापुटों में। श्वास भीतर गयी, फेफड़े फैले; अनुभव करो फेफड़ों का फैलना। फिर क्षण-भर सब रुक गया...अनुभव करो उस रुके हुए क्षण को। फिर श्वास बाहर चली, फेफड़े सिकुड़े, अनुभव करो उस सिकुड़ने को। फिर नासापुटों से श्वास बाहर गयी। अनुभव करो उत्तप्त श्वास नासापुटों से बाहर जाती। फिर क्षण-भर सब ठहर गया, फिर नयी श्वास आयी।
यह पड़ाव है। श्वास का भीतर आना, क्षण-भर श्वास का भीतर ठहरना, फिर श्वास का बाहर जाना, क्षण-भर फिर श्वास का बाहर ठहरना, फिर नयी श्वास का आवागमन, यह वर्तुल है—वर्तुल को चुपचाप देखते रहो। करने की कोई भी बात नहीं, बस देखो। यही विपस्सना का अर्थ है।
क्या होगा इस देखने से? इस देखने से अपूर्व होता है। इसके देखते-देखते ही चित्त के सारे रोग तिरोहित हो जाते हैं। इसके देखते-देखते ही, मैं देह नहीं हूं, इसकी प्रत्यक्ष प्रतीति हो जाती है। इसके देखते-देखते ही, मैं मन नहीं हूं, इसका स्पष्ट अनुभव हो जाता है। और अंतिम अनुभव होता है कि मैं श्वास भी नहीं हूं। फिर मैं कौन हूं? फिर उसका कोई उत्तर तुम दे न पाओगे। जान तो लोगे, मगर गूंगे का गुड़ हो जायेगा। वही है उड़ान। पहचान तो लोगे कि मैं कौन हूं, मगर अब बोल न पाओगे। अब अबोल हो जायेगा। अब मौन हो जाओगे। गुनगुनाओगे भीतर-भीतर, मीठा-मीठा स्वाद लोगे, नाचोगे मस्त होकर, बांसुरी बजाओगे; पर कह न पाओगे।
और विपस्सना की सुविधा यह है कि कहीं भी कर सकते हो। किसी को कानों-कान पता भी न चले। बस में बैठे, ट्रेन में सफर करते, कार में यात्रा करते, राह के किनारे, दुकान पर, बाजार में, घर में, बिस्तर पर लेटे...किसी को पता भी न चले! क्योंकि न तो कोई मंत्र का उच्चार करना है, न कोई शरीर का विशेष आसन चुनना है। धीरे-धीरे...इतनी सुगम और सरल बात है और इतनी भीतर की है, कि कहीं भी कर ले सकते हो। और जितनी ज्यादा विपस्सना तुम्हारे जीवन में फैलती जाये उतने ही एक दिन बुद्ध के इस अदभुत आमंत्रण को समझोगे: इहि पस्सिको! आओ और देख लो!
बुद्ध कहते हैं: ईश्वर को मानना मत, क्योंकि शास्त्र कहते हैं; मानना तभी जब देख लो। बुद्ध कहते हैं: इसलिए भी मत मानना कि मैं कहता हूं। मान लो तो चूक जाओगे। देखना, दर्शन करना। और दर्शन ही मुक्तिदायी है। मान्यताएं हिंदू बना देती हैं, मुसलमान बना देती हैं, ईसाई बना देती हैं, जैन बना देती हैं, बौद्ध बना देती हैं; दर्शन तुम्हें परमात्मा के साथ एक कर देता है। फिर तुम न हिंदू हो, न मुसलमान, न ईसाई, न जैन, न बौद्ध; फिर तुम परमात्ममय हो। और वही अनुभव पाना है। वही अनुभव पाने योग्य है।
ध्यान विधि | Meditation hindi
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On: नवंबर 21, 2016
कैसे करें ध्यान?
यह महत्वपूर्ण सवाल है। यह उसी तरह है कि हम पूछें कि कैसे श्वास लें, कैसे जीवन जीएं, आपसे सवाल पूछा जा सकता है कि क्या आप हंसना और रोना सीखते हैं या कि पूछते हैं कि कैसे रोएं या हंसे? सच मानो तो हमें कभी किसी ने नहीं सिखाया की हम कैसे पैदा हों। ध्यान हमारा स्वभाव है, जिसे हमने चकाचौंध के चक्कर में खो दिया है।
ध्यान के शुरुआती तत्व-
1. श्वास की गति
2.मानसिक हलचल
3. ध्यान का लक्ष्य
4.होशपूर्वक जीना।
उक्त चारों पर ध्यान दें तो तो आप ध्यान करना सीख जाएंगे।
श्वास का महत्व :
ध्यान में श्वास की गति को आवश्यक तत्व के रूप में मान्यता दी गई है। इसी से हम भीतरी और बाहरी दुनिया से जुड़े हैं। श्वास की गति तीन तरीके से बदलती है-
1.मनोभाव
2.वातावरण
3.शारीरिक हलचल।
इसमें मन और मस्तिष्क के द्वारा श्वास की गति ज्यादा संचालित होती है। जैसे क्रोध और खुशी में इसकी गति में भारी अंतर रहता है।श्वास को नियंत्रित करने से सभी को नियंत्रित किया जा सकता है। इसीलिए श्वास क्रिया द्वारा ध्यान को केन्द्रित और सक्रिय करने में मदद मिलती है।
श्वास की गति से ही हमारी आयु घटती और बढ़ती है। ध्यान करते समय जब मन अस्थिर होकर भटक रहा हो उस समय श्वसन क्रिया पर ध्यान केन्द्रित करने से धीरे-धीरे मन और मस्तिष्क स्थिर हो जाता है और ध्यान लगने लगता है। ध्यान करते समय गहरी श्वास लेकर धीरे-धीरे से श्वास छोड़ने की क्रिया से जहां शरीरिक , मानसिक लाभ मिलता है,
मानसिक हलचल :
ध्यान करने या ध्यान में होने के लिए मन और मस्तिष्क की गति को समझना जरूरी है। गति से तात्पर्य यह कि क्यों हम खयालों में खो जाते हैं, क्यों विचारों को ही सोचते रहते हैं या कि विचार करते रहते हैं या कि धुन, कल्पना आदि में खो जाते हैं। इस सबको रोकने के लिए ही कुछ उपाय हैं- पहला आंखें बंदकर पुतलियों को स्थिर करें। दूसरा जीभ को जरा भी ना हिलाएं उसे पूर्णत: स्थिर रखें। तीसरा जब भी किसी भी प्रकार का विचार आए तो तुरंत ही सोचना बंद कर सजग हो जाएं। इसी जबरदस्ती न करें बल्कि सहज योग अपनाएं।
निराकार ध्यान :
ध्यान करते समय देखने को ही लक्ष्य बनाएं। दूसरे नंबर पर सुनने को रखें। ध्यान दें, गौर करें कि बाहर जो ढेर सारी आवाजें हैं उनमें एक आवाज ऐसी है जो सतत जारी रहती है आवाज, फेन की आवाज जैसी आवाज या जैसे कोई कर रहा है ॐ का उच्चारण। अर्थात सन्नाटे की आवाज। इसी तरह शरीर के भीतर भी आवाज जारी है। ध्यान दें। सुनने और बंद आंखों के सामने छाए अंधेरे को देखने का प्रयास करें। इसे कहते हैं निराकार ध्यान।
आकार ध्यान :
आकार ध्यान में प्रकृति और हरे-भरे वृक्षों की कल्पना की जाती है। यह भी कल्पना कर सकते हैं कि किसी पहाड़ की चोटी पर बैठे हैं और मस्त हवा चल रही है। यह भी कल्पना कर सकते हैं कि आपका ईष्टदेव आपके सामने खड़ा हैं। 'कल्पना ध्यान' को इसलिए करते हैं ताकि शुरुआत में हम मन को इधर उधर भटकाने से रोक पाएं।
होशपूर्वक जीना :
क्या सच में ही आप ध्यान में जी रहे हैं? ध्यान में जीना सबसे मुश्किल कार्य है। व्यक्ति कुछ क्षण के लिए ही होश में रहता है और फिर पुन: यंत्रवत जीने लगता है। इस यंत्रवत जीवन को जीना छोड़ देना ही ध्यान है।जैसे की आप गाड़ी चला रहे हैं, लेकिन क्या आपको इसका पूरा पूरा ध्यान है कि 'आप' गाड़ी चला रहे हैं। आपका हाथ कहां हैं, पैर कहां है और आप देख कहां रहे हैं। फिर जो देख रहे हैं पूर्णत: होशपूर्वक है कि आप देख रहे हैं वह भी इस धरती पर। कभी आपने गूगल अर्थ का इस्तेमाल किया होगा। उसे आप झूम इन और झूम ऑउट करके देखें। बस उसी तरह अपनी स्थिति जानें। कोई है जो बहुत ऊपर से आपको देख रहा है। शायद आप ही हों।
1 नव॰ 2016
आप की अदालत फेम रजत शर्मा की सफलता की कहानी Rajat Sharma Success Story in Hindi
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On: नवंबर 01, 2016
मित्रो हम अक्सर महापुरुषो , फ़िल्मी कलाकारो , टीवी कलाकारो ,क्रिकेटरों और नेताओं की जीवनी पढ़ते है लेकिन हमने कभी किसी न्यूज़ एंकर की जीवनी बनी हो ऐसा कभी नही सुना होगा क्योंकि न्यूज़ एंकर आते जाते रहते है लेकिन जो न्यूज़ एंकर सच्चाई के साथ अपना काम करते है वो आने वाले वालो में नही बल्कि हमेशा रहने वालो में रहते है | इन्ही न्यूज़ एंकर में रजत शर्मा एक ऐसा नाम है जिनके शो आप की अदालत को देश की सारी जनता एक साथ देखती है | आप की अदालत की माध्यम से उन्होंने कई कलाकारों ,नेताओ और जानी मानी हस्तियों से वो प्रश्न पूछे जिसे पूछने के लिए लोग इसलिए घबराते थे कि शायद ऐसा शो सफल ना हो सके लेकिन उन्होंने अपनी मुस्कुराहट के बल पर देश की जानी मानी हस्तियों से सब कुछ उगलवा दिया | आइये आपको उन्ही प्रेरणादायक रजत शर्मा की कहानी से आप लोगो को रूबरू करवाते है |
Rajat Sharma रजत शर्मा का जन्म 18 फरवरी 1957 को दिल्ली में हुआ था | रजत जी बचपन में अपने साथ भाइयो , एक बहन , बीमार माँ और पिता के साथ पुरानी दिल्ली में 10×10 के एक छोटे से घर में रहते थे | उस समय उनके घर में बिजली और पानी के व्यवस्था भी नही हुआ करती थी | रजत जी पढने के लिए municipality school जाते थे | रजत जी ने बताया कि उनकी आर्थिक स्तिथि इतनी कमजोर थी कि वो पाउडर का दूध पीते थे जिसे गर्म पानी में डालकर पीते है | नहाने के लिए वो गली के नुक्कड़ पर लगे हुए एक सरकारी नल पर जाते थे | जब घर में बिजली की व्यवस्था नही हुआ करती थी तो वो पढने के लिए नजदीकी रेलवे स्टेशन के लैंप के नीचे बैठकर पढ़ा करते थे | उस समय में पढने की लगन बहुत कम बच्चो में होती थी और बहुत कम बच्चे ज्यादा पढने में विश्वास रखते थे लेकिन रजत जी को कुछ कर गुजरने की चाह ने पढाई में लगाये रखा |
बचपन में उनके जीवन में एक ऐसी घटना हुयी जिसने उनके जीवन को बदलकर रख दिया | 60 के दशक में टीवी सेट कुछ ही घरो में हुआ करते थे | ऐसा मान सकते है कि 100 घरो में एक घर में टीवी हुआ करती थे | रजत जी के पडौसी के पास टीवी हुआ करती थी जहा पर सारा मोहल्ला टीवी देखने के लिए इक्ठटा हो जाता था | उस समय दूरदर्शन पर फिल्मे दो कड़ीयो में आती थी शनिवार को पहला भाग और रविवार को दूसरा भाग आता था | एक दिन की बात है जब वो आठ साल के थे तब मनोज कुमार की “शहीद” फिल्म का पहला भाग उन्होंने अपने पडौसी के यहा देखा और दुसरे दिन जब फिल्म का दूसरा भाग देखने गये तब उनके पडौसी ने उन्हें अंदर नही आने दिया |
अब रजत जी रोते हुए अपने घर आये क्योंकि वो फिल्म का आधा भाग नही देख पाए थे और उनके दिमाग में फिल्म के दुसरे भाग की बाते घूम रही थी | जब वो घर लौटे तो उनके पिताजी ने उनके रोने का कारण पूछा तोरजत जी ने बताया “पिताजी मै फिल्म देखने गया , आधी फिल्म कल देख ली थी और आज जब फिल्म का बाकी आधा भाग देखने गये तो उन्होंने दरवाजा बंद कर दिया “| उस समय उनके पिताजी ने जो बात कही वो उनके दिल को छु गयी , उनके पिताजी ने कहा “बेटा , तुम किसी दुसरे को देखने के लिए तीसरे के घर में टीवी देखने जाते हो अगर दम है तो तुम कुछ ऐसा करके दिखाओ कि जिससे तुम्हे टीवी देखने की जरूरत न पड़े बल्कि टीवी पर तुम्हे लोग देखे ” |
इसके बाद उन्होंने इस बात को अपने जीवन का उद्देश्य बना दिया और पढ़ाई में लगे रहे | उनके जीवन में पहला मौका तब आया जब उन्होंने M Com पुरी कर ली | M Com पुरी करने के बाद वो समर जॉब की तलाश में घूम रहे थे तभी उनकी मुलाकात जनार्धन ठाकुर से हुयी जिन्होंने उस दौरान आनन्दबाजार पत्रिका छोडी ही थी | आनदं बाजार पत्रिका को आप अच्छी तरह जानते होंगे जो मीडिया में आज बहुत बड़ी कंपनी बनकर उभरा है जिसे हम ABP के नाम से जानते है जिनका न्यूज़ चैनल वर्तमान में चल रहा है |
जनार्धन ठाकुर उस समय एक नये सिंडिकेटेड कॉलम को शुरू करने की तैयारी कर रहे थे | उन्होंने रजत जी को Researcher के रूप में काम पर रख लिया | करीब तीन महीने तक उन्होंने अपनी गर्मियों की छुट्टियों में उनके साथ काम किया | 1982 में जब एक बार जब उन्होंने अपनी रिसर्च का इस्तेमाल करने की आज्ञा माँगी तब उन्होंने Onlooker magazine में अपनी पहली कहानी लिखी थी | जिसके लिए उनको 300 रूपये मिले थे जो उस समय के लिए बहुत मायने रखते थे | उस समय वो एक जगह जॉब भी कर रहे थे और उनको 400 रूपये महीना मिलता था | जब उनको एक कहानी के ही 300 रूपये मिले तो उनका रुझान मैगज़ीन में काम करने की तरफ चला गया |
इसके बाद रजत जी ने Onlooker magazine में trainee reporter के रूप में काम करना शुरू कर दिया | 1984 में उनको ब्यूरो का प्रमुख बना दिया गया और उसके बाद उनको 1985 में एडिटर बना दिया गया | इसके बाद रजत जी को मुंबई बुलाया गया जिस समय उनके पास journalism में केवल तीन साल का अनुभव था | जब वहा पर दिग्गज अफसरों ने 28 साल के रजत शर्मा को एडिटर के रूप में देखा तो लोगो ने उन्हें अपनाने से मना कर दियालेकिन बाद में उनके काम को देखकर वो उनसे खुश हुए | उन्होंने उस समय एक दुसरी पत्रिका के साथ मिलकर चंद्रास्वामी पर स्टिंग ऑपरेशन भी किया था | तीन साल बाद वो एडिटर के रूप में Sunday Observer में काम करने लगे और उसके बाद The Daily में फिर उन्हें एडिटर का काम मिला |
Rajat Sharma रजत जी के जीवन में दूसरा महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब दस साल बाद 1992 में फ्लाइट के सफर में उनकी मुलाकात सुभाष चन्द्र से हुयी | सुभाष जी ने उस समय जी टीवी की शुरुवात की ही थी | जी टीवी भारत का पहला प्राइवेट एंटरटेनमेंट हिंदी चैनल है उससे पहले टीवी में दूरदर्शन के अलावा कोई चैनल नही था | सुभाष की एक दिलचस्प इंटरव्यू कार्यक्रम की तलाश में थे जिसमे वो सेलिब्रिटीज को बुलाकर उनसे सवालात करे | रजत जी उस फ्लाइट में उनको आप की आदालत का रफ़ आईडिया दिया था | इसके बाद कुछ समय तक उनसे मुलाक़ात नही हुयी थी |
कुछ दिनों बाद सुभाष जी ने Rajat Sharma रजत जी को अपने ऑफिस में बुलाया और कहा “मै तुमको अपने शो का होस्ट बनाना चाहता हु ” | रजत जी को बिलकुल भी विश्वास नही हुआ क्योंकि इससे पहले टीवी पर आने के बारे में उन्होंने सपने में भी नही सोचा था | उनको उस समय लगा कि उनके पिताजी द्वारा कही बात अब सच होने जा रही है | Rajat Sharma रजत जी तुरंत राजी हो गये और 12 फरवरी 1993 को आप की अदालत का पहला शो रिकॉर्ड हुआ था | अब इससे पहले Rajat Sharma रजत जी ने कभी टीवी पर कोई प्रोग्राम नही किया था तो वो इसके लिए रिसर्च काफी कर रहे थे | अब ये तय किया गया कि सुबह 10 बजे से 12 बजे तक रिहर्सल करेंगे और 12:30 बजे पहला प्रोग्राम खुशवंत सिंह के साथ रिकॉर्ड होना था और उसी दिन दूसरा प्रोग्राम लालू यादव का करना तय किया गया था |
अब उस दिन जब सब तैयारी हो गयी थी तब सुबह 11 बजे लालू यादव का फ़ोन आया कि “शाम को कुछ काम के कारण हम नही आ सकते है इसलिए यदि अभी समय हो तो इंटरव्यू ले लो “| अब रजत जी घबरा गये क्योंकि उस समय तक उन्होंने ज्यादा तैयारी भी नही की थी | उस समय लालू यादव बड़े नेता थे और वो इस इंटरव्यू को मिस नही करना चाहते थे इसलिए रजत जी ने लालू यादव को आने को बोल दिया | अब लालू यादव आ गये लेकिन रजत की इतनी तैयारी नही हो पायी थी इस कारण घबरा रहे थे | अब जब इंटरव्यू शुरू होने लगा तब लालू यादव ने रोकते हुए कहा कि “नया शो है नारियल तो फोड़ो ” | तब कही से नारियल लाया गया और स्टेज के बीच में लालू यादव ने नारियल फोड़ दिया जिससे पानी फर्श पर बिखर गया तब उसे साफ़ करने में तोडा ओर समय लग गया |
इसके बाद इंटरव्यू शुरू हुआ और सवाल जवाब के बीच पहली रेकॉर्डींग पुरी हो गयी | इंटरव्यू खत्म होने पर रजत जी को चैन की साँस आयी | इसके बाद एक से बढकर एक नेता और कलाकार आप की अदालत में आये जिनको रजत जी ने पसीने ला दिए थे | इस शो की बदौलत आज रजत जी मीडिया की दुनिया में शीर्ष पर पहुच गये | इसके बाद उन्होंने सुभाष जी से बात कर न्यूज़ चैनल शुरू करने की बात की | 1995 में Rajat Sharma रजत जी ने पहला प्राइवेट बुलेटिन जी न्यूज़ पर चालु किया |
इसके बाद Rajat Sharma के जीवन का तीसरा मोड़ तब आया जब उन्होंने अपने खुद का न्यूज़ चैनल शुरू करने का विचार बनाया जिसको उन्होंने देश के नाम पर इंडिया टीवी रखकर 2004 में लांच किया | इंडिया टीवी शुरूवाट में केवल सीरियस खबरे दिखाता था जिसमे महिला कल्याण या पशु कल्याण जैसे मुद्दे हुआ करते थे | अब उन्होंने इंडिया टीवी न्यूज़ चैनल की शुरुवात तो कर दी लेकिन शुरवात के दो सालो में ही उनके पास पैसो की कमी होने लग गयी थी | उस समय उन्होंने अपनी सारी प्रॉपर्टी बेचकर लोगो की त्नखाव्ह निकाली थी | इसके बाद उनके पास दो विकल्प रह गये थे कि या तो हार मानकर इस चैनल को बंद कर दे या कुछ बदलाव करे |
2008 में उन्होंने अपने न्यूज़ चैनल में बदलाव करना शुरू किया और गम्भीर मुद्दों के अलावा लोकप्रिय खबरे भी दिखाना शुरू कर दिया | अब धीर धीरे चैनल की लोकप्रियता बढ़ने लगी थी और आठ महीनों में वो देश का दूसरा सबसे बड़ा न्यूज़ चैनल बन गया | अब उनके पास पैसो की भी कोई कमी नही रही | जब 2009 में इंडिया टीवी शिखर पर पहुच गया तब उन्होंने फिर गम्भीर मुद्दों पर न्यूज़ देना शुरू कर दिया जिसे लोगो ने अपना लिया | Rajat Sharma रजत जी ने जी टीवी से अपने नाटक आप की अदालत को इंडिया टीवी पर शिफ्ट कर लिया जो हर शनिवार को रात 10 बजे प्रसारित होता है जिसमे देश की जानी मानी हस्तिया आती है | 2015 में रजत शर्मा Rajat Sharma को साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में अपूर्व योगदान के लिए भारत सरकार की तरफ से पद्म भूषण से भी सम्मानित किया गया |
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