7 अग॰ 2017
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न सुहृद्यो विपन्नार्था दिनमभ्युपपद्यते । स बन्धुर्योअपनीतेषु सहाय्यायोपकल्पते ॥
भावार्थ :
सुह्रद् वही है जो विपत्तिग्रस्त दीन मित्र का साथ दे और सच्चा बन्धु वही है जो अपने कुमार्गगामी बन्धु का भी सहायता करे ।
आढ् यतो वापि दरिद्रो वा दुःखित सुखितोऽपिवा । निर्दोषश्च सदोषश्च व्यस्यः परमा गतिः ॥
भावार्थ :
चाहे धनी हो या निर्धन, दुःखी हो या सुखी, निर्दोष हो या सदोष - मित्र ही मनुष्य का सबसे बड़ा सहारा होता है ।
वसेत्सह सपत्नेन क्रुद्धेनाशुविषेण च । न तू मित्रप्रवादेन संवसेच्छत्रु सेविना ॥
भावार्थ :
शत्रु और क्रुद्ध महाविषधर सर्प के साथ भले ही रहें, पर ऐसे मनुष्य के साथ कभी न रहे जो ऊपर से तो मित्र कहलाता है, लेकिन भीतर-भीतर शत्रु का हितसाधक हो ।
लोक-नीति -न चातिप्रणयः कार्यः कर्त्तव्योप्रणयश्च ते । उभयं हि महान् दोसस्तस्मादन्तरदृग्भव ॥
भावार्थ :
मृत्यु-पूर्व बालि ने अपने पुत्र अंगद को यह अन्तिम उपदेश दिया था - तुम किसी से अधिक प्रेम या अधिक वैर न करना, क्योंकि दोनों ही अत्यन्त अनिष्टकारक होते हैं, सदा मध्यम मार्ग का ही अवलम्बन करना ।
सर्वथा सुकरं मित्रं दुष्करं प्रतिपालनम् ॥
भावार्थ :
मित्रता करना सहज है लेकिन उसको निभाना कठिन है ।
मित्रता-उपकारफलं मित्रमपकारोऽरिलक्षणम् ॥
भावार्थ :
उपकार करना मित्रता का लक्षण है और अपकार करना शत्रुता का ।
ये शोकमनुवर्त्तन्ते न तेषां विद्यते सुखम् ॥
भावार्थ :
शोकग्रस्त मनुष्य को कभी सुख नहीं मिलता ।
शोकः शौर्यपकर्षणः ॥
भावार्थ :
शोक मनुष्य के शौर्य को नष्ट कर देता है ।
सुख-दुर्लभं हि सदा सुखम् ।
भावार्थ :
सुख सदा नहीं बना रहता है ।
न सुखाल्लभ्यते सुखम् ॥
भावार्थ :
सुख से सुख की वृद्धि नहीं होती ।
मृदुर्हि परिभूयते ॥
भावार्थ :
मृदु पुरुष का अनादर होता है ।
सर्वे चण्डस्य विभ्यति ॥
भावार्थ :
क्रोधी पुरुष से सभी डरते हैं ।
स्वभावो दुरतिक्रमः ॥
भावार्थ :
स्वभाव का अतिक्रमण कठिन है ।
रामायण श्लोक 2-Ramayana shloka_2
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On: अगस्त 07, 2017
न सुहृद्यो विपन्नार्था दिनमभ्युपपद्यते । स बन्धुर्योअपनीतेषु सहाय्यायोपकल्पते ॥
भावार्थ :
सुह्रद् वही है जो विपत्तिग्रस्त दीन मित्र का साथ दे और सच्चा बन्धु वही है जो अपने कुमार्गगामी बन्धु का भी सहायता करे ।
आढ् यतो वापि दरिद्रो वा दुःखित सुखितोऽपिवा । निर्दोषश्च सदोषश्च व्यस्यः परमा गतिः ॥
भावार्थ :
चाहे धनी हो या निर्धन, दुःखी हो या सुखी, निर्दोष हो या सदोष - मित्र ही मनुष्य का सबसे बड़ा सहारा होता है ।
वसेत्सह सपत्नेन क्रुद्धेनाशुविषेण च । न तू मित्रप्रवादेन संवसेच्छत्रु सेविना ॥
भावार्थ :
शत्रु और क्रुद्ध महाविषधर सर्प के साथ भले ही रहें, पर ऐसे मनुष्य के साथ कभी न रहे जो ऊपर से तो मित्र कहलाता है, लेकिन भीतर-भीतर शत्रु का हितसाधक हो ।
लोक-नीति -न चातिप्रणयः कार्यः कर्त्तव्योप्रणयश्च ते । उभयं हि महान् दोसस्तस्मादन्तरदृग्भव ॥
भावार्थ :
मृत्यु-पूर्व बालि ने अपने पुत्र अंगद को यह अन्तिम उपदेश दिया था - तुम किसी से अधिक प्रेम या अधिक वैर न करना, क्योंकि दोनों ही अत्यन्त अनिष्टकारक होते हैं, सदा मध्यम मार्ग का ही अवलम्बन करना ।
सर्वथा सुकरं मित्रं दुष्करं प्रतिपालनम् ॥
भावार्थ :
मित्रता करना सहज है लेकिन उसको निभाना कठिन है ।
मित्रता-उपकारफलं मित्रमपकारोऽरिलक्षणम् ॥
भावार्थ :
उपकार करना मित्रता का लक्षण है और अपकार करना शत्रुता का ।
ये शोकमनुवर्त्तन्ते न तेषां विद्यते सुखम् ॥
भावार्थ :
शोकग्रस्त मनुष्य को कभी सुख नहीं मिलता ।
शोकः शौर्यपकर्षणः ॥
भावार्थ :
शोक मनुष्य के शौर्य को नष्ट कर देता है ।
सुख-दुर्लभं हि सदा सुखम् ।
भावार्थ :
सुख सदा नहीं बना रहता है ।
न सुखाल्लभ्यते सुखम् ॥
भावार्थ :
सुख से सुख की वृद्धि नहीं होती ।
मृदुर्हि परिभूयते ॥
भावार्थ :
मृदु पुरुष का अनादर होता है ।
सर्वे चण्डस्य विभ्यति ॥
भावार्थ :
क्रोधी पुरुष से सभी डरते हैं ।
स्वभावो दुरतिक्रमः ॥
भावार्थ :
स्वभाव का अतिक्रमण कठिन है ।
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