महाभारत के शांतिपर्व में पितामाह भीष्म ने युधिष्ठिर को कई ज्ञान की बातें बताई थीं। वे बातें न की सिर्फ उस समय में बल्कि आज के समय में भी बहुत उपयोगी मानी जाती है। महाभारत में तीन ऐसे लोगों के बारे में बताया गया है, जो किसी भी परिस्थिति का सामना आसानी से कर सकते हैं।
न हि बुद्धयान्वितः प्राज्ञो नीतिशास्त्रविशारदः।
निमज्जत्यापदं प्राप्य महतीं दारुणमपि।।
अर्थात- बुद्धिमान, विद्वान और नीतिशास्त्र में निपुण व्यक्ति भारी और भयंकर विपत्ति आने पर भी उसमें फंसता नहीं है।
महाभारत में दी गई एक कथा के अनुसार, पांडवों के वनवास के दौरान एक बार खुद यमराज ने युधिष्ठिर की बुद्धिमानी की परीक्षा लेनी चाही। इसी उद्देश्य से यमराज ने यक्ष का रूप धारण कर लिया।
यक्षरूपी यमराज ने सरोवर के पास एक-एक करके सभी पांडवों की परीक्षा ली, जिसमें पार न करने की वजह से युधिष्ठिर को छोड़ कर बाकी चारों पांडव सरोवर के पास मृत पड़े थे। जब युधिष्ठिर ने अपने सभी भाइयों को मरा हुआ पाया तब यक्ष से उनको जीवित करने को कहा। यक्ष ने ऐसा करने के लिए युधिष्ठिर के सामने एक शर्त रखी।
शर्त यह थी कि धर्म युधिष्ठिर से कुछ सवाल करेंगे और अगर युधिष्ठिर ने उनके सही जवाब दे दिए, तो वह यक्ष उसने सभी भाइयों को जीवित कर देगा। ऐसी विपरीत परिस्थिति में भी युधिष्ठिर ने अपनी बुद्धिमानी से यक्ष की परीक्षा पार कर ली और अपने सभी भाइयों को फिर से जीवित करा लिया।
इसलिए कहते है बुद्धिमान मनुष्य अपनी सुझ-बूझ से हर परेशानी का हल निकल सकता है। कहा जाता है कि जब दुर्योधन का जन्म हुआ था, तब वह जन्म होते ही गीदड़ की तरह जोर-जोर से रोने लगा और शोर मचाने लगा। विदुर महाविद्वान थे, उन्होंने दुर्योधन को देखते ही धृतराष्ट्र को उसका त्याग कर देने की सलाह दी थी।
वह जान समझ गए थे कि यह बालक ही कौरव वंश के विनाश का कारण बनेगा। इसके अलावा विदुर ने जीवनभर अपने विद्वान होने के प्रमाण दिए हैं। वे हर समय धृतराष्ट्र को सही सलाह देते थे, लेकिन अपने पुत्र के प्यार में धृतराष्ट्र विद्वान विदुर की बातों को समझ न सकें और इसी वजह से उनके कुल का नाश हो गया।
श्रीकृष्ण एक सफल नीतिकार थे। वे सभी तरह की नीतियों के बारे में जानते थे। कौरवों ने जीवनभर पांडवों के लिए कोई न कोई परेशानियां खड़ी की, लेकिन श्रीकृष्ण ने अपनी सफल नीतियों से पांडवों को हर वक्त सहायता की।
अगर पांडवों के पास श्रीकृष्ण के जैसे नीतिकार न होते तो शायद पांडव युद्ध में कभी विजयी नहीं हो पाते। उसी तरह नीतियों को जानने वाले और उनका पालन करने वाले व्यक्ति के सामने कैसी भी परेशानी आ जाएं, वह उसका सामान आसानी से कर लेता है।
31 अग॰ 2017
30 अग॰ 2017
मेजर ध्यानचंद
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On: अगस्त 30, 2017
हम दिन भर कई सारे मुद्दों से घिरे रहते हैं और उसमें उन चीजों को भूल जाते हैं जो हमारे वर्तमान से, हमारे अस्तित्व से जुड़ा है.आज ध्यानचंद का बर्थ डे है मगर वो राम रहीम सिंह, बाबा रामपाल, आसाराम बापू, चीन और डोकलाम के बीच कहीं दब से गए हैं.
चाहे मेन स्ट्रीम मीडिया हो या फिर सोशल मीडिया बीते कई दिनों से बाबा गुरमीत राम रहीम सिंह, बाबा रामपाल, आसाराम बापू समेत चीन और डोकलाम चर्चा में है. कहा जा सकता है कि इन चीजों और बातों को छोड़ शायद हमारे पास कोई मुद्दा ही नहीं बचा है. या ऐसा भी हो सकता है कि सोशल मीडिया के इस टॉयलेट युग में हम इन मुद्दों पर बात कर पब्लिसिटी पाने के भूखे हैं. हो कुछ भी सकता है, संभव सब है.
व्यक्तिगत रूप से मेरा इन मुद्दों से दिल भर चुका है, और शायद अब तक आप भी इन खबरों और बातों से उकता गए हों. तो चलिए आज कुछ ऐसी बात की जाए जिसको पढ़कर या जिसपर चर्चा करते हुए हमें और आपको स्वयं पर गर्व की अनुभूति हो. जी हां, बिल्कुल सही सुन रहे हैं आप. जिस बात के लिए आपको अपने भारतीय होने पर गर्व करना चाहिए वो ये है कि, आज 'हॉकी के जादूगर' काहे जाने वाले मेजर ध्यान चंद का बर्थ डे, यानी जन्मदिन है.
आज का दिन हर भारतीय के लिए बेहद खास है जिसपर उसे गर्व करना चाहिए
क्रिकेट, बैडमिंटन, टेनिस जैसे खेलों के बीच भले ही आज हमारी हॉकी विश्व मानचित्र पर उतना प्रभाव न रखती हो मगर इसे जब भी और जितना भी जाना गया है वो मेजर ध्यान चंद के जरिये ही जाना गया है. कहा जा सकता है कि वर्तमान परिपेक्ष में मेजर ध्यानचंद और हॉकी दोनों ही एक दूसरे के पर्याय हैं.
हमें मेजर ध्यानचंद और हॉकी दोनों पर कोई लंबा चौड़ा और दो या 3 हजार शब्दों का आर्टिकल नहीं लिखना है. न ही हमें इस खानापूर्ति भर के लिए लिखना है क्योंकि आज उनका जन्मदिन है. आज ध्यानचंद को याद करने का या उन पर बात करने का उद्देश्य, केवल इतना है कि उनपर बात होनी चाहिए और उनके बारे में लोगों को ज्यादा से ज्यादा जानना चाहिए. चाहे आप सहमत हों या न हों मगर इतना समझ लीजिये कि मेजर ध्यानचंद किसी एक दिन के मोहताज नहीं हैं और न ही इन्हें एक दिन के घेरे में कैद किया जा सकता है.
गौरतलब है कि 29 अगस्त, 1905 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में जन्में मेजर ध्यानचंद का जन्मदिन भारत में खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है. 16 साल की उम्र में सेना में सर्विस देकर मेजर की रैंक पर रिटायर होने वाले ध्यान चंद ने 400 गोल किये थे. ध्यानचंद के बारे में ये भी कहा जाता है कि इन्होंने 1928 के एम्स्टर्डम ओलिंपिक्स में 14 गोल किए और सबसे ज्यादा गोल करने वाले खिलाड़ी बने.
ध्यान चंद का हॉकी स्टिक पर कमांड कैसा था, इसे आप एक घटना से समझ सकते हैं. कहा जाता है कि एक बार नीदरलैंड्स के अधिकारियों ने ध्यानचंद का हॉकी स्टिक सिर्फ इसलिए तोड़ दी क्योंकि उनको शक था कि जरूर ध्यानचंद हॉकी स्टिक में चुंबक जैसी कोई चीज लगाकर आते हैं जिससे जब एक बार गेंद इनके कब्जे में आती है तो उसे कोई छुड़ा नहीं पाता.
आज ध्यानचंद का जन्मदिन है मगर ऐसे कई कारण हैं जिसके चलते हमें उन्हें याद करना चाहिए
1956 में भारत सरकार द्वारा पद्म विभूषण से सम्मानित ध्यानचंद ने तब भारत का नाम विश्व पटल पर रौशन किया था जब उन्होंने तीन ओलिंपिक खेलों 1928, 1932 और 1936 में भारत को गोल्ड मेडल दिलवाया था. ध्यानचंद के बारे में ये तक मशहूर है कि जर्मनी का तानाशाह हिटलर तक इनके खेल से प्रभावित था और चाहता था कि ध्यानचंद जर्मनी के लिए खेलें.
उपरोक्त सारो बातों के बाद मुझे ध्यानचंद पर गर्व है और मुझे महसूस हो रहा है कि इन जानकारियों के बाद आपको भी ध्यानचंद के अलावा अपने भारतीय होने पर गर्व हो रहा होगा. अंत में इतना ही कि ध्यानचंद या इनसे मिलती जुलती शख्सियतें ऐसी हैं जिन्हें हमें न सिर्फ हर रोज बल्कि हर पल याद करना चाहिए. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि ध्यानचंद हमारे इतिहास से जुड़े हैं और अगर हम अपना इतिहास भूलते हैं तो न सिर्फ हम अपना वर्तमान खराब कर रहे रहे हैं बल्कि हमारा भविष्य भी गर्त के अंधेरों में डूब जाएगा.
चाहे मेन स्ट्रीम मीडिया हो या फिर सोशल मीडिया बीते कई दिनों से बाबा गुरमीत राम रहीम सिंह, बाबा रामपाल, आसाराम बापू समेत चीन और डोकलाम चर्चा में है. कहा जा सकता है कि इन चीजों और बातों को छोड़ शायद हमारे पास कोई मुद्दा ही नहीं बचा है. या ऐसा भी हो सकता है कि सोशल मीडिया के इस टॉयलेट युग में हम इन मुद्दों पर बात कर पब्लिसिटी पाने के भूखे हैं. हो कुछ भी सकता है, संभव सब है.
व्यक्तिगत रूप से मेरा इन मुद्दों से दिल भर चुका है, और शायद अब तक आप भी इन खबरों और बातों से उकता गए हों. तो चलिए आज कुछ ऐसी बात की जाए जिसको पढ़कर या जिसपर चर्चा करते हुए हमें और आपको स्वयं पर गर्व की अनुभूति हो. जी हां, बिल्कुल सही सुन रहे हैं आप. जिस बात के लिए आपको अपने भारतीय होने पर गर्व करना चाहिए वो ये है कि, आज 'हॉकी के जादूगर' काहे जाने वाले मेजर ध्यान चंद का बर्थ डे, यानी जन्मदिन है.
आज का दिन हर भारतीय के लिए बेहद खास है जिसपर उसे गर्व करना चाहिए
क्रिकेट, बैडमिंटन, टेनिस जैसे खेलों के बीच भले ही आज हमारी हॉकी विश्व मानचित्र पर उतना प्रभाव न रखती हो मगर इसे जब भी और जितना भी जाना गया है वो मेजर ध्यान चंद के जरिये ही जाना गया है. कहा जा सकता है कि वर्तमान परिपेक्ष में मेजर ध्यानचंद और हॉकी दोनों ही एक दूसरे के पर्याय हैं.
हमें मेजर ध्यानचंद और हॉकी दोनों पर कोई लंबा चौड़ा और दो या 3 हजार शब्दों का आर्टिकल नहीं लिखना है. न ही हमें इस खानापूर्ति भर के लिए लिखना है क्योंकि आज उनका जन्मदिन है. आज ध्यानचंद को याद करने का या उन पर बात करने का उद्देश्य, केवल इतना है कि उनपर बात होनी चाहिए और उनके बारे में लोगों को ज्यादा से ज्यादा जानना चाहिए. चाहे आप सहमत हों या न हों मगर इतना समझ लीजिये कि मेजर ध्यानचंद किसी एक दिन के मोहताज नहीं हैं और न ही इन्हें एक दिन के घेरे में कैद किया जा सकता है.
गौरतलब है कि 29 अगस्त, 1905 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में जन्में मेजर ध्यानचंद का जन्मदिन भारत में खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है. 16 साल की उम्र में सेना में सर्विस देकर मेजर की रैंक पर रिटायर होने वाले ध्यान चंद ने 400 गोल किये थे. ध्यानचंद के बारे में ये भी कहा जाता है कि इन्होंने 1928 के एम्स्टर्डम ओलिंपिक्स में 14 गोल किए और सबसे ज्यादा गोल करने वाले खिलाड़ी बने.
ध्यान चंद का हॉकी स्टिक पर कमांड कैसा था, इसे आप एक घटना से समझ सकते हैं. कहा जाता है कि एक बार नीदरलैंड्स के अधिकारियों ने ध्यानचंद का हॉकी स्टिक सिर्फ इसलिए तोड़ दी क्योंकि उनको शक था कि जरूर ध्यानचंद हॉकी स्टिक में चुंबक जैसी कोई चीज लगाकर आते हैं जिससे जब एक बार गेंद इनके कब्जे में आती है तो उसे कोई छुड़ा नहीं पाता.
आज ध्यानचंद का जन्मदिन है मगर ऐसे कई कारण हैं जिसके चलते हमें उन्हें याद करना चाहिए
1956 में भारत सरकार द्वारा पद्म विभूषण से सम्मानित ध्यानचंद ने तब भारत का नाम विश्व पटल पर रौशन किया था जब उन्होंने तीन ओलिंपिक खेलों 1928, 1932 और 1936 में भारत को गोल्ड मेडल दिलवाया था. ध्यानचंद के बारे में ये तक मशहूर है कि जर्मनी का तानाशाह हिटलर तक इनके खेल से प्रभावित था और चाहता था कि ध्यानचंद जर्मनी के लिए खेलें.
उपरोक्त सारो बातों के बाद मुझे ध्यानचंद पर गर्व है और मुझे महसूस हो रहा है कि इन जानकारियों के बाद आपको भी ध्यानचंद के अलावा अपने भारतीय होने पर गर्व हो रहा होगा. अंत में इतना ही कि ध्यानचंद या इनसे मिलती जुलती शख्सियतें ऐसी हैं जिन्हें हमें न सिर्फ हर रोज बल्कि हर पल याद करना चाहिए. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि ध्यानचंद हमारे इतिहास से जुड़े हैं और अगर हम अपना इतिहास भूलते हैं तो न सिर्फ हम अपना वर्तमान खराब कर रहे रहे हैं बल्कि हमारा भविष्य भी गर्त के अंधेरों में डूब जाएगा.
29 अग॰ 2017
भिखारी बनकर लौटा बेटा तो मां ने दिए तीन चावल
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On: अगस्त 29, 2017
राजा गोपीचंद का मन गुरु गोरखनाथ के उपदेश सुनकर सांसारिकता से उदासीन हो गया। मां से अनुमति लेकर राजा गोपीचंद साधु बन गए। साधु बनने के बहुत दिन बाद एक बार वह अपने राज्य लौटे और भिक्षापात्र लेकर अपने महल में पहुंच आवाज लगाई, 'अलखनिरंजन!' आवाज सुन उनकी मां भिक्षा देने के लिए महल से बाहर आईं। गोपीचंद ने अपना भिक्षापात्र मां के आगे कर दिया और कहा, 'मां, मुझे भिक्षा दो।'
मां ने भिक्षापात्र में चावल के तीन दाने डाल दिए। गोपीचंद ने जब इसका कारण पूछा तो मां बोली, 'तुम्हारी मां हूं। चावल के ये तीन दाने मेरे तीन वचन हैं। तुम्हें इसका पालन करना है। पहला वचन, तुम जहां भी रहो वैसे ही सुरक्षित रहो जैसे पहले मेरे घर पर रहते थे। दूसरा वचन, जब खाओ तो वैसा ही स्वादिष्ट भोजन खाओ जैसा राजमहल में खाते थे। तीसरा वचन, उसी प्रकार की निद्रा लो जैसी राजमहल में अपने आरामदेह पलंग पर लेते थे।' गोपीचंद इन तीन वचनों के रहस्य को नहीं समझ सके और कहने लगे, 'मां! मैं अब राजा नहीं रहा तो कैसे सुरक्षित रह सकता हूं/' मां ने कहा, 'तुम्हें इसके लिए सैनिकों की आवश्यकता नहीं है। तुम्हें क्रोध, लोभ, माया, घमंड, कपट जैसे शत्रु घेरेंगे, इन्हें पराजित करने के लिए सत्संगति, अच्छे विचार, अच्छा आचरण रखना होगा।'
गोपीचंद ने फिर पूछा, 'वन में मेरे लिए कौन अच्छा भोजन पकाएगा/' मां ने कहा, 'जब ध्यान और योग में तुम्हारा पूरा दिन व्यतीत होगा, तुम्हें तेज भूख लगेगी तब उस स्थिति में जो भी भोजन उपलब्ध होगा, वह स्वाद वाला होगा। और रही सोने की बात तो कड़ी मेहनत से थक कर चूर होने के बाद जहां भी तुम लेटोगे गहरी नींद तुम्हें घेर ही लेगी।' मां के इन तीन वचनों ने गोपीचंद की आंखें खोल दीं जिसके बाद वह फिर से ज्ञान की तलाश में निकल गए।
विवेकानंद के जीवन के प्रेरक प्रसंग
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On: अगस्त 29, 2017
महापुरुष सिर्फ विचारों से ही नहीं, कर्मों
से भी अनुकरणीय होते हैं. महात्मा गांधी ने कहा था मेरा जीवन ही संदेश है.
यह बात विवेकानंद ने कही तो नहीं, लेकिन उनका जीवन निश्चित तौर पर अनुकरणीय
संदेश के तौर पर हमारे सामने उपस्थित है. विवेकानंद के जीवन के कई ऐसे
प्रसंग विभिन्न किताबों में मिलते हैं, जिनसे काफी कुछ सीखा जा सकता है,
नयी दृष्टि प्राप्त की जा सकती है. इन प्रसंगों से गुजरना जीवन को लेकर एक
सकारात्मक सोच विकसित करने के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण माना जा सकता है.
हम यहां विवेकानंद के जीवन से जुड़े ऐसे ही कुछ प्रसंगों का संकलन इस
उम्मीद से कर रहे हैं कि ये युवाओं समेत व्यापक समाज को नयी प्रेरणा देने
का काम करेंगे.
* लक्ष्य पर ध्यान लगाओस्वामी विवेकानंद अमेरिका में भ्रमण कर रहे थे. एक जगह से गुजरते हुए उन्होंने पुल पर खड़े कुछ लड़कों को नदी में तैर रहे अंडे के छिलकों पर बंदूक से निशाना लगाते देखा. किसी भी लड़के का एक भी निशाना सही नहीं लग रहा था. तब उन्होंने एक लड़के से बंदूक ली और खुद निशाना लगाने लगे.
उन्होंने पहला निशाना लगाया और वह बिलकुल सही लगा. फिर एक के बाद एक उन्होंने कुल 12 निशाने लगाये और सभी बिलकुल सटीक लगे. ये देख लड़के दंग रह गए और उनसे पूछा, भला आप ये कैसे कर लेते हैं? स्वामी जी बोले, तुम जो भी कर रहे हो अपना पूरा दिमाग उसी एक काम में लगाओ. अगर तुम निशाना लगा रहे हो, तो तम्हारा पूरा ध्यान सिर्फ अपने लक्ष्य पर होना चाहिए. तब तुम कभी चूकोगे नहीं. अगर तुम अपना पाठ पढ़ रहे हो, तो सिर्फ पाठ के बारे में सोचो. मेरे देश में बच्चों को यही करना सिखाया जाता है.
* संस्कृति वस्त्रों में नहीं, चरित्र के विकास में है
एक बार स्वामी विवेकानंद विदेश यात्रा पर गये थे. उनका भगवा वस्त्र और आकर्षक पगड़ी देख कर लोग अचंभित रह गये और वे यह पूछे बिना नहीं रह सके, आपका बाकी सामान कहां है?
स्वामी जी बोले, मेरे पास बस यही सामान है.
तो कुछ लोगों ने व्यंग्य किया, अरे! यह कैसी संस्कृति है आपकी? तन पर केवल एक भगवा चादर लपेट रखी है. कोट-पतलून जैसा कुछ भी पहनावा नहीं है?
इस पर स्वामी विवेकानंद जी मुस्कुराये और बोले, हमारी संस्कृति आपकी संस्कृति से भिन्न है. आपकी संस्कृति का निर्माण आपके दर्जी करते हैं. जबकि हमारी संस्कृति का निर्माण हमारा चरित्र करता है. संस्कृति वस्त्रों में नहीं, चरित्र के विकास में है.
* मृत्यु के समक्ष
एक अंगरेज मित्र तथा कु. मूलर के साथ स्वामीजी मैदान में टहल रहे थे. उसी समय एक पागल सांड तेजी से उनकी ओर बढ़ने लगा. अंगरेज सज्जन भाग कर पहाड़ी के दूसरी छोर पर जा खड़े हुए. कु. मूलर भी जितना हो सका दौड़ी और घबराकर गिर पड़ीं. स्वामीजी ने उन्हें सहायता पहुंचाने का कोई और उपाय न देख खुद सांड के सामने खड़े हो गये और सोचने लगे, ह्यचलो, अंत आ ही पहुंचा.
बाद में उन्होंने बताया था कि उस समय उनका मन हिसाब करने में लगा हुआ था कि सांड उन्हें कितनी दूर फेंकेगा. लेकिन कुछ देर बाद वह ठहर गया और पीछे हटने लगा. अपने कायरतापूर्ण पलायन पर वे अंगरेज बड़े लज्जित हुए. कु. मूलर ने पूछा कि वे ऐसी खतरनाक स्थिति से सामना करने का साहस कैसे जुटा सके? स्वामीजी ने पत्थर के दो टुकड़े उठाकर उन्हें आपस में टकराते हुए कहा, खतरे और मृत्यु के समक्ष मैं स्वयं को चकमक पत्थर के समान सबल महसूस करता हूं, क्योंकि मैंने ईश्वर के चरण स्पर्श किये हैं.
* देने का आनंद, पाने के आनंद से बड़ा
भ्रमण एवं भाषणों से थके हुए स्वामी विवेकानंद अपने निवास स्थान पर लौटे. उन दिनों वे अमेरिका में एक महिला के यहां ठहरे हुए थे. वे अपने हाथों से भोजन बनाते थे. एक दिन वे भोजन की तैयारी कर रहे थे कि कुछ बच्चे पास आकर खड़े हो गये.
उनके पास सामान्यतया बच्चों का आना-जाना लगा ही रहता था. बच्चे भूखे थे. स्वामीजी ने अपनी सारी रोटियां एक-एक कर बच्चों में बांट दीं. महिला वहीं बैठी सब कुछ देख रही थी. यह सब देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ. आखिर उससे रहा नहीं गया और उसने स्वामीजी से पूछ ही लिया, आपने सारी रोटियां उन बच्चों को दे डालीं, अब आप क्या खायेंगे?
स्वामीजी के अधरों पर मुस्कान दौड़ गयी. उन्होंने प्रसन्न होकर कहा, मां, रोटी तो पेट की ज्वाला शांत करनेवाली वस्तु है. इस पेट में न सही, उस पेट में ही सही. देने का आनंद पाने के आनंद से बड़ा होता है.
* सच बोलने की हिम्मत
स्वामी विवेकानंद एक दिन कक्षा में मित्रों को कहानी सुना रहे थे. सभी इतने मग्न थे कि उन्हें पता ही नहीं चला कि कब मास्टरजी कक्षा में आये और पढ़ाना शुरू कर दिया. मास्टरजी को कुछ फुसफुसाहट सुनाई दी. कौन बात कर रहा है? उन्होंने पूछा. सभी ने स्वामी जी और उनके साथ बैठे छात्रों की तरफ इशारा कर दिया. मास्टरजी ने तुरंत उन छात्रों को बुलाया और पाठ से संबंधित एक प्रश्न पूछने लगे. जब कोई उत्तर न दे सका, तो मास्टरजी ने स्वामी जी से भी वही प्रश्न किया.
उन्होंने उत्तर दे दिया. मास्टरजी को यकीन हो गया कि स्वामी जी पाठ पर ध्यान दे रहे थे और बाकी छात्र बातचीत में लगे थे. उन्होंने स्वामी जी को छोड़ सभी को बेंच पर खड़े होने की सजा दे दी. सभी छात्र बेंच पर खड़े होने लगे, स्वामी जी ने भी यही किया. तब मास्टर जी स्वामी जी से बोले, तुम बैठ जाओ. नहीं सर, मुझे भी खड़ा होना होगा क्योंकि मैं ही इन छात्रों से बात कर रहा था. स्वामी जी ने कहा. सभी उनकी सच बोलने की हिम्मत देख बहुत प्रभावित हुए.
* मन की शक्ति अभ्यास से आती है
यह बात उन दिनों की है जब स्वामी विवेकानंद देश भ्रमण में थे. साथ में उनके एक गुरु भाई भी थे. स्वाध्याय, सत्संग एवं कठोर तप का अविराम सिलसिला चल रहा था. जहां कहीं अच्छे ग्रंथ मिलते, वे उनको पढ़ना नहीं भूलते थे. किसी नयी जगह जाने पर उनकी सब से पहली तलाश किसी अच्छे पुस्तकालय की रहती.
एक जगह एक पुस्तकालय ने उन्हें बहुत आकर्षित किया. उन्होंने सोचा, क्यों न यहां थोड़े दिनों तक डेरा जमाया जाये. उनके गुरुभाई उन्हें पुस्तकालय से संस्कृत और अंगरेजी की नयी-नयी किताबें लाकर देते थे. स्वामीजी उन्हें पढ़कर अगले दिन वापस कर देते.
रोज नयी किताबें वह भी पर्याप्त पृष्ठों वाली इस तरह से देते एवं वापस लेते हुए उस पुस्तकालय का अधीक्षक बड़ा हैरान हो गया. उसने स्वामी जी के गुरु भाई से कहा, क्या आप इतनी सारी नयी-नयी किताबें केवल देखने के लिए ले जाते हैं? यदि इन्हें देखना ही है, तो मैं यों ही यहां पर दिखा देता हूं. रोज इतना वजन उठाने की क्या जरूरत है.
लाइब्रेरियन की इस बात पर स्वामी जी के गुरु भाई ने गंभीरतापूर्वक कहा, जैसा आप समझ रहे हैं वैसा कुछ भी नहीं है. हमारे गुरु भाई इन सब पुस्तकों को पूरी गंभीरता से पढ़ते हैं, फिर वापस करते हैं.
इस उत्तर से आश्चर्यचकित होते हुए लाइब्रेरियन ने कहा, यदि ऐसा है तो मैं उनसे जरूर मिलना चाहूंगा. अगले दिन स्वामी जी उससे मिले और कहा, महाशय, आप हैरान न हों. मैंने न केवल उन किताबों को पढ़ा है, बल्कि उनको याद भी कर लिया है. इतना कहते हुए उन्होंने वापस की गयी कुछ किताबें उसे थमायी और उनके कई महत्वपूर्ण अंशों को शब्दश: सुना दिया.
लाइब्रेरियन चकित रह गया. उसने उनकी याददाश्त का रहस्य पूछा. स्वामी जी बोले, अगर पूरी तरह एकाग्र होकर पढ़ा जाए, तो चीजें दिमाग में अंकित हो जाती हैं. पर इसके लिए आवश्यक है कि मन की धारणशक्ति अधिक से अधिक हो और वह शक्ति अभ्यास से आती है.
* खतरे के आगे डरो मत
स्वामी विवेकानंद बचपन से ही निडर थे, जब वह आठ साल के थे तभी से एक मित्र के यहां खेलने जाया करते थे. उसके घर में एक चंपक पेड़ था. एक दिन वह उस पेड़ को पकड़ कर झूल रहे थे. मित्र के दादाजी पहुंचे. उन्हें डर था कि कहीं नरेंद्र गिर न जाएं, इसलिए उन्होंने समझाते हुआ कहा, नरेंद्र, तुम इस पेड़ से दूर रहो, क्योंकि इस पेड़ पर एक दैत्य रहता है.
नरेंद्र को अचरज हुआ. उसने दादाजी से दैत्य के बारे में और भी कुछ बताने का आग्रह किया. दादाजी बोले, वह पेड़ पर चढ़ने वालों की गर्दन तोड़ देता है. नरेंद्र बिना कुछ कहे आगे बढ़ गये. दादाजी भी मुस्कुराते हुए आगे बढ़ गये. उन्हें लगा कि बच्चा डर गया है. पर जैसे ही वे कुछ आगे बढ़े नरेंद्र पुन: पेड़ पर चढ़ गये और डाल पर झूलने लगे. मित्र जोर से चीखा, तुमने दादाजी की बात नहीं सुनी. नरेंद्र जोर से हंसे और बोले, मित्र डरो मत! तुम भी कितने भोले हो! सिर्फ इसलिए कि किसी ने तुमसे कुछ कहा है उस पर यकीन मत करो. खुद सोचो अगर यह बात सच होती तो मेरी गर्दन कब की टूट चुकी होती.
पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के बारे में कुछ बातें
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Successlocator
On: अगस्त 29, 2017
भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद का जन्म 3 दिसंबर, 1884 को बिहार के सीवान जिले के जीरादेई गाँव में हुआ था, तमाम अभावों के बावजूद उन्होंने शिक्षा ली, कानून के क्षेत्र में डाक्टरेट की उपाधि भी हासिल की. राजेंद्र प्रसाद ने वकालत करने के साथ ही भारत की आजादी के लिए भी काफी संघर्ष किया.
1. 1905 में जब गोपाल कृष्ण गोखले ने उन्हें सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी ज्वाइन करने को कहा तो वे असमंजस की स्थिति में थे क्योंकि उन्हें उनका परिवार भी देखना था और पढ़ाई भी करनी थी. इस वाकये के बारे में राजेंद्र प्रसाद ने बाद में कहा कि उनके जीवन का यह सबसे कठिन वक्त था. इसी से उनकी पढ़ाई भी खराब हो गई क्योंकि उनका सारा ध्यान देश की ओर था. उन्होंने किसी तरह से लॉ की परीक्षा पास की.
2. राजेंद्र प्रसाद हमेशा एक अच्छे स्टूडेंट के रूप में जाने जाते थे. उन्हें हर महीने 30 रुपये की स्कॉलरशिप पढ़ाई करने के लिए मिलती थी. उनकी एग्जाम शीट को देखकर एक एग्जामिनर ने कहा था कि 'द एग्जामिनी इज बेटर देन द एग्जामिनर'.
3. राजेंद्र प्रसाद दो साप्ताहिक मैगजीन भी निकालते थे. हिंदी में निकलने वाली मैगजीन का नाम 'देश' और अंग्रेजी में निकलने वाली मैगजीन का नाम 'सर्चलाइट' था.
4. प्रसाद ने 1906 में बिहारी स्टूडेंट्स कॉन्फ्रेंस का आयोजन करवाया, इस तरह का आयोजन पूरे भारत में पहली बार हो रहा था. इस आयोजन ने बिहार के दो बड़े नेताओं अनुग्रह नारायण और कृष्ण सिन्हा को जन्म दिया. प्रसाद 1913 में बिहार छात्र सम्मेलन के अध्यक्ष चुने गए.
5. जब 1930 में महात्मा गांधी ने नमक सत्याग्रह आंदोलन चलाया तो राजेंद्र प्रसाद को इसके लिए बिहार का मुख्य नेता बनाया गया. प्रसाद ने फंड बढ़ाने के लिए नमक बेचने का काम भी किया.
6. भारत रत्न अवार्ड की शुरुआत राजेंद्र प्रसाद के द्वारा 2 जनवरी 1954 को हुई थी. उस समय तक केवल जीवित व्यक्ति को ही भारत रत्न दिया जाता था. बाद में इसे बदल दिया गया. 1962 में डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को देश का सर्वश्रेष्ण सम्मान भारत रत्न दिया गया.
7. प्रसाद ने सुभाष चंद्र बोस और गांधी के बीच मतभेदों को दूर करने का हर संभव प्रयास किया ताकि स्वतंत्रता आंदोलन प्रभावित न हो सके.
8. 1934 में बिहार में आए भूकंप और बाढ़ के दौरान उन्होंने रिलीफ फंड जमा करने के लिए काफी मेहनत की. उन्होंने फंड के लिए 38 लाख रुपये जुटाए जो कि वायसराय के फंड से तीन गुना ज्यादा था.
9. चंपारण आंदोलन के समय जब प्रसाद ने देखा कि महात्मा गांधी जैसा व्यक्ति लोगों की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहता है तो वे भी आंदोलन में शामिल हो गए. उसी आंदोलन के दौरान जब महात्मा गांधी को ठहरने के लिए जगह नहीं मिल रही था तो वे राजेंद्र प्रसाद के घर पर रुके थे.
10. राजेंद्र प्रसाद के काम और व्यवहार को देखते हुए भारत के महान कवि रविन्द्रनाथ टैगोर ने राजेंद्र प्रसाद को ख़त में लिखा था कि मैं तुम पर भरोसा करता हूं कि तुम पीड़ित लोगों की मदद करोगे और खराब वक्त में भी लोगों के बीच एकता और प्यार को बनाए रखोगे.
1. 1905 में जब गोपाल कृष्ण गोखले ने उन्हें सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी ज्वाइन करने को कहा तो वे असमंजस की स्थिति में थे क्योंकि उन्हें उनका परिवार भी देखना था और पढ़ाई भी करनी थी. इस वाकये के बारे में राजेंद्र प्रसाद ने बाद में कहा कि उनके जीवन का यह सबसे कठिन वक्त था. इसी से उनकी पढ़ाई भी खराब हो गई क्योंकि उनका सारा ध्यान देश की ओर था. उन्होंने किसी तरह से लॉ की परीक्षा पास की.
2. राजेंद्र प्रसाद हमेशा एक अच्छे स्टूडेंट के रूप में जाने जाते थे. उन्हें हर महीने 30 रुपये की स्कॉलरशिप पढ़ाई करने के लिए मिलती थी. उनकी एग्जाम शीट को देखकर एक एग्जामिनर ने कहा था कि 'द एग्जामिनी इज बेटर देन द एग्जामिनर'.
3. राजेंद्र प्रसाद दो साप्ताहिक मैगजीन भी निकालते थे. हिंदी में निकलने वाली मैगजीन का नाम 'देश' और अंग्रेजी में निकलने वाली मैगजीन का नाम 'सर्चलाइट' था.
4. प्रसाद ने 1906 में बिहारी स्टूडेंट्स कॉन्फ्रेंस का आयोजन करवाया, इस तरह का आयोजन पूरे भारत में पहली बार हो रहा था. इस आयोजन ने बिहार के दो बड़े नेताओं अनुग्रह नारायण और कृष्ण सिन्हा को जन्म दिया. प्रसाद 1913 में बिहार छात्र सम्मेलन के अध्यक्ष चुने गए.
5. जब 1930 में महात्मा गांधी ने नमक सत्याग्रह आंदोलन चलाया तो राजेंद्र प्रसाद को इसके लिए बिहार का मुख्य नेता बनाया गया. प्रसाद ने फंड बढ़ाने के लिए नमक बेचने का काम भी किया.
6. भारत रत्न अवार्ड की शुरुआत राजेंद्र प्रसाद के द्वारा 2 जनवरी 1954 को हुई थी. उस समय तक केवल जीवित व्यक्ति को ही भारत रत्न दिया जाता था. बाद में इसे बदल दिया गया. 1962 में डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को देश का सर्वश्रेष्ण सम्मान भारत रत्न दिया गया.
7. प्रसाद ने सुभाष चंद्र बोस और गांधी के बीच मतभेदों को दूर करने का हर संभव प्रयास किया ताकि स्वतंत्रता आंदोलन प्रभावित न हो सके.
8. 1934 में बिहार में आए भूकंप और बाढ़ के दौरान उन्होंने रिलीफ फंड जमा करने के लिए काफी मेहनत की. उन्होंने फंड के लिए 38 लाख रुपये जुटाए जो कि वायसराय के फंड से तीन गुना ज्यादा था.
9. चंपारण आंदोलन के समय जब प्रसाद ने देखा कि महात्मा गांधी जैसा व्यक्ति लोगों की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहता है तो वे भी आंदोलन में शामिल हो गए. उसी आंदोलन के दौरान जब महात्मा गांधी को ठहरने के लिए जगह नहीं मिल रही था तो वे राजेंद्र प्रसाद के घर पर रुके थे.
10. राजेंद्र प्रसाद के काम और व्यवहार को देखते हुए भारत के महान कवि रविन्द्रनाथ टैगोर ने राजेंद्र प्रसाद को ख़त में लिखा था कि मैं तुम पर भरोसा करता हूं कि तुम पीड़ित लोगों की मदद करोगे और खराब वक्त में भी लोगों के बीच एकता और प्यार को बनाए रखोगे.
22 अग॰ 2017
जैसा जैसा सोचेगे वैसे वैसे बनते जायेंगे
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On: अगस्त 22, 2017
ठीक उसी हाथी की तरह आज हमारी मानसिकता हो गयी है यदि हम किसी काम मे किसी वजह से असफल होते है तो हैम ये मान बैठते है कि अब ये काम हमारे बस से बाहर है और हम प्रयास जॉन भी बंद कर देते है और सेफ जॉन की तरफ आकर्षित होते है जी कि कोई छोटी मोटी नॉकरी जिससे हमारी जिंदगी आसानी से निकल जाए। इस तरह हमारी सोच दिन ब दिन ओर क्रुद्ध होती चली जाती है और सोचते है जो भाग्य में लिखा होगा तो मिलेगा ही औऱ इस तरह प्रयास करना धीरे धीरे बंद कर देते है।आपने एक कहावत तो सुनी ही होगा"मन के हारे हार है,मैन के जीते जीत"।
कहने का आशय स्पष्ट है जब तक आप खुद हार नही मान तब तक हमे कोई नही हरा सकता और जब हम मन से हार मान लेते है तब कोई कितना भी प्रयास कर ले हमे सफल नही बना सकता।इसलिए आप सारी बेड़ियो को तोड़ कर अपनी खोज में निकालिये।
कविता
हरिवंश राय बच्चन
तू खुद की खोज में निकल
तू किस लिए हताश है, तू चल तेरे वजूद की
समय को भी तलाश है
समय को भी तलाश है
जो तुझ से लिपटी बेड़ियाँ
समझ न इन को वस्त्र तू .. (x२)
ये बेड़ियां पिघाल के
बना ले इनको शस्त्र तू
बना ले इनको शस्त्र तू
तू खुद की खोज में निकल
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तू किस लिए हताश है, तू चल तेरे वजूद की
समय को भी तलाश है
समय को भी तलाश है
चरित्र जब पवित्र है
तोह क्यों है ये दशा तेरी .. (x२)
ये पापियों को हक़ नहीं
की ले परीक्षा तेरी
की ले परीक्षा तेरी
तू खुद की खोज में निकल
तू किस लिए हताश है तू चल, तेरे वजूद की
समय को भी तलाश है
जला के भस्म कर उसे
जो क्रूरता का जाल है .. (x२)
तू आरती की लौ नहीं
तू क्रोध की मशाल है
तू क्रोध की मशाल है
तू खुद की खोज में निकल
तू किस लिए हताश है, तू चल तेरे वजूद की
समय को भी तलाश है
समय को भी तलाश है
चूनर उड़ा के ध्वज बना
गगन भी कपकाएगा .. (x२)
अगर तेरी चूनर गिरी
तोह एक भूकंप आएगा
तोह एक भूकंप आएगा
तू खुद की खोज में निकल
तू किस लिए हताश है, तू चल तेरे वजूद की
समय को भी तलाश है
समय को भी तलाश है
18 अग॰ 2017
एक अंजान व्यक्ति के डायरी के कुछ अंश।
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On: अगस्त 18, 2017
दोस्तों ये मेरी पोस्ट एक अंजान व्यक्ति के डायरी के कुछ अंश बहुत ही अनोखा अध्याय है,मै ये नहीं जानता की ये किस व्यक्ति के है ये डायरिया मुझे एक मित्र के भंगार की दुकान पर मिली और मै उसे ले आया मैंने पढ़ा और मुझे अच्छा लगा तो मैंने सोचा की ये आप लोगो के साथ भी साझा करू शायद ये आप लोगो के भी जीवन में कुछ काम आये।मै ये अध्याय उस व्यक्ति के ही सब्दो में सीधे सीधे आपके समक्ष रखूँगा मैं इसमें किसी प्रकार का बदलाव नहीं करूँगा।
16 मई 1987
आज शनिवार है ,आज का दिन काफी अच्छा रहा आज मैं सदानंद जी से मिला जिन्होंने मुझे व्यापर करने के फायदे बताये और कुछ नयी योजनाये भी बताई ।बहुत अच्छा लगा मुझे बहुत सारे व्यापर करने की योजनाएं बनाते और उन पर काम करते करते लगभग नौ महीने हो गए है और लगभग कोई भी व्यापर सफल नहीं रहा, मैंने सबसे पहले मजदूरों का ठेका लेने का काम चालू किया उसमे मै उन्हें सँभाल न पाया और वह ठेका मेरा एक महीने के अंदर खत्म हो गया ,फिर मैंने कपड़ो का व्यापार किया वह भी लगभग असफल रहा।इससे मै बहुत दुखी और आहत हुआ और लगभग दो तीन महीने से कुछ नहीं करने की सोच कर पूरा ध्यान नॉकरी पर लगाया।परंतु नॉकरी से मेरा मन ऊब जाता है ।आज फिर से मेरे मन में एक योजना आयी है और मै नॉकरी के साथ में उस काम को कर सकता हु।
दोस्तों इस अंश में एक ऐसे व्यक्ति के बारे में बताया गया है जो कभी हार नहीं मानता एक बार असफल हुआ दुबारा पुनः प्रयास किया फिर असफल हुआ फिर नयी शक्ति के साथ प्रयाश को तत्पर ।
दोस्तों ये डायरिया मैंने पूरी नहीं पढ़ी है मैं अभी इन्हें पढ़ रहा हु जैसे ही मुझे इसमें कुछ आप लोगो के लिए उपयोगी लगेगा मै जरूर बताऊंगा।
7 अग॰ 2017
रामायण श्लोक 2-Ramayana shloka_2
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On: अगस्त 07, 2017
न सुहृद्यो विपन्नार्था दिनमभ्युपपद्यते । स बन्धुर्योअपनीतेषु सहाय्यायोपकल्पते ॥
भावार्थ :
सुह्रद् वही है जो विपत्तिग्रस्त दीन मित्र का साथ दे और सच्चा बन्धु वही है जो अपने कुमार्गगामी बन्धु का भी सहायता करे ।
आढ् यतो वापि दरिद्रो वा दुःखित सुखितोऽपिवा । निर्दोषश्च सदोषश्च व्यस्यः परमा गतिः ॥
भावार्थ :
चाहे धनी हो या निर्धन, दुःखी हो या सुखी, निर्दोष हो या सदोष - मित्र ही मनुष्य का सबसे बड़ा सहारा होता है ।
वसेत्सह सपत्नेन क्रुद्धेनाशुविषेण च । न तू मित्रप्रवादेन संवसेच्छत्रु सेविना ॥
भावार्थ :
शत्रु और क्रुद्ध महाविषधर सर्प के साथ भले ही रहें, पर ऐसे मनुष्य के साथ कभी न रहे जो ऊपर से तो मित्र कहलाता है, लेकिन भीतर-भीतर शत्रु का हितसाधक हो ।
लोक-नीति -न चातिप्रणयः कार्यः कर्त्तव्योप्रणयश्च ते । उभयं हि महान् दोसस्तस्मादन्तरदृग्भव ॥
भावार्थ :
मृत्यु-पूर्व बालि ने अपने पुत्र अंगद को यह अन्तिम उपदेश दिया था - तुम किसी से अधिक प्रेम या अधिक वैर न करना, क्योंकि दोनों ही अत्यन्त अनिष्टकारक होते हैं, सदा मध्यम मार्ग का ही अवलम्बन करना ।
सर्वथा सुकरं मित्रं दुष्करं प्रतिपालनम् ॥
भावार्थ :
मित्रता करना सहज है लेकिन उसको निभाना कठिन है ।
मित्रता-उपकारफलं मित्रमपकारोऽरिलक्षणम् ॥
भावार्थ :
उपकार करना मित्रता का लक्षण है और अपकार करना शत्रुता का ।
ये शोकमनुवर्त्तन्ते न तेषां विद्यते सुखम् ॥
भावार्थ :
शोकग्रस्त मनुष्य को कभी सुख नहीं मिलता ।
शोकः शौर्यपकर्षणः ॥
भावार्थ :
शोक मनुष्य के शौर्य को नष्ट कर देता है ।
सुख-दुर्लभं हि सदा सुखम् ।
भावार्थ :
सुख सदा नहीं बना रहता है ।
न सुखाल्लभ्यते सुखम् ॥
भावार्थ :
सुख से सुख की वृद्धि नहीं होती ।
मृदुर्हि परिभूयते ॥
भावार्थ :
मृदु पुरुष का अनादर होता है ।
सर्वे चण्डस्य विभ्यति ॥
भावार्थ :
क्रोधी पुरुष से सभी डरते हैं ।
स्वभावो दुरतिक्रमः ॥
भावार्थ :
स्वभाव का अतिक्रमण कठिन है ।
6 अग॰ 2017
व्वाल्मीकि रामायण श्लोक 1-Ramayana shloka
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On: अगस्त 06, 2017
धर्म-धर्मादर्थः प्रभवति धर्मात्प्रभवते सुखम् । धर्मण लभते सर्वं धर्मप्रसारमिदं जगत् ॥
भावार्थ :
धर्म से ही धन, सुख तथा सब कुछ प्राप्त होता है । इस संसार में धर्म ही सार वस्तु है ।
सत्य -सत्यमेवेश्वरो लोके सत्ये धर्मः सदाश्रितः । सत्यमूलनि सर्वाणि सत्यान्नास्ति परं पदम् ॥
भावार्थ :
सत्य ही संसार में ईश्वर है; धर्म भी सत्य के ही आश्रित है; सत्य ही समस्त भव - विभव का मूल है; सत्य से बढ़कर और कुछ नहीं है ।
उत्साह-उत्साहो बलवानार्य नास्त्युत्साहात्परं बलम् । सोत्साहस्य हि लोकेषु न किञ्चदपि दुर्लभम् ॥
भावार्थ :
उत्साह बड़ा बलवान होता है; उत्साह से बढ़कर कोई बल नहीं है । उत्साही पुरुष के लिए संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं है ।
क्रोध - वाच्यावाच्यं प्रकुपितो न विजानाति कर्हिचित् । नाकार्यमस्ति क्रुद्धस्य नवाच्यं विद्यते क्वचित् ॥
भावार्थ :
क्रोध की दशा में मनुष्य को कहने और न कहने योग्य बातों का विवेक नहीं रहता । क्रुद्ध मनुष्य कुछ भी कह सकता है और कुछ भी बक सकता है । उसके लिए कुछ भी अकार्य और अवाच्य नहीं है ।
कर्मफल-यदाचरित कल्याणि ! शुभं वा यदि वाऽशुभम् । तदेव लभते भद्रे! कर्त्ता कर्मजमात्मनः ॥
भावार्थ :
मनुष्य जैसा भी अच्छा या बुरा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है । कर्त्ता को अपने कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है ।
सुदुखं शयितः पूर्वं प्राप्येदं सुखमुत्तमम् । प्राप्तकालं न जानीते विश्वामित्रो यथा मुनिः ॥
भावार्थ :
किसी को जब बहुत दिनों तक अत्यधिक दुःख भोगने के बाद महान सुख मिलता है तो उसे विश्वामित्र मुनि की भांति समय का ज्ञान नहीं रहता - सुख का अधिक समय भी थोड़ा ही जान पड़ता है ।
निरुत्साहस्य दीनस्य शोकपर्याकुलात्मनः । सर्वार्था व्यवसीदन्ति व्यसनं चाधिगच्छति ॥
भावार्थ :
उत्साह हीन, दीन और शोकाकुल मनुष्य के सभी काम बिगड़ जाते हैं , वह घोर विपत्ति में फंस जाता है ।
अपना-पराया-गुणगान् व परजनः स्वजनो निर्गुणोऽपि वा । निर्गणः स्वजनः श्रेयान् यः परः पर एव सः ॥
भावार्थ :
पराया मनुष्य भले ही गुणवान् हो तथा स्वजन सर्वथा गुणहीन ही क्यों न हो, लेकिन गुणी परजन से गुणहीन स्वजन ही भला होता है । अपना तो अपना है और पराया पराया ही रहता है ।
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